रात, चाँद और तन्हाई (डायरी के पन्ने से)
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>मेरा नाम किरण है और अभी अपने कमरे में हूँ । हाँ , बिल्कुल अकेली ।कोई बात करने के लिए नहीं पास में । फोन पर भी किसी से बात नहीं कर सकती । और ना कोई शोसल साइट । कारण, पूरे मोहल्ले का लाइट जा चुका है । आँधी , बारिश, तेज हवा, घना बादल कुल मिलकर अनुकूल मौसम नहीं होने के कारण । ये भी हो सकता है कि कई पोल गिर गया हो या ट्रांसफॉर्मर में गड़बड़ी आ गई हो ।
दिन भर लाइट गुम रहा । सारा चीज जिसके कारण स्विच ऑफ हो गया ।
आज शाम को बहुत तेज बारिश हुई । हवा इतनी जोर जोर से बह रही थी कि सारे कमरे का दरवाजा खिड़की बन्द की । ऐसे आवाज हो रहा था कि कहीं कोई फाईरिंग कर रहा हो ।
ठंड भी लगने लगी थोड़ी थोड़ी । नीचे आकर मुझे सॉल ओढ़ना पड़ा । अचानक से एक बार बिजली आई और गई । गई तो फिर आई ही नहीं । अब टॉर्च कौन यूज करता है, जब हमेशा लाइट हो तो । दिन भर बारिश की वजह से इमरजेंसी लाइट फिर चार्ज नहीं हो सका । यानी व्यस्त रहने के तमाम साधन बंद ।
मोमबत्ती से काम चलाना पड़ रहा है । सब कमरा बन्द कर चुकी हूँ । बाहर जाकर देखी कोई आदमी भी नजर नहीं आता है । वैसे भी इस तरफ कम लोग ही आते हैं । हमारा मकान जो सबसे हट कर है । बगल में नदी है , बाँस की बिट्टी, आम का बगीचा है । हर बार चाँद इसी के ऊपर मुझे दिखता है । ऐसे किसी बच्चे की तरह जो गेट से छुप कर देखता है फिर छिप जाता है ।
मोमबत्ती की मध्दिम रोशनी में ही, कई बार कुछ पढ़ने की कोशिश की , मगर इस पीली रोशनी में पढ़ा नहीं जाता, कई बार पढ़ने की कोशिश की मगर किताब बार बार उल्टा पलटा कर रख देती । फिर मन होता फिर से पढूं । लेकिन एक दो पंक्ति पढ़ कर रख देती । मन नहीं लग रहा है शायद ।
जब हर तरफ सन्नाटा हो, बाहर मौसम भी अलग मिजाज में हो तो मन कैसे, पहले जैसा रह सकता है । इसलिए सोची कुछ लिखू पर ये सब मैं क्या लिख रही हूँ । कुछ कहानी जैसी लगनी चाहिए ना । अभी तक मैंने इस रोशनी को देखते हुए जो बातें की क्या वो कहानी नहीं । मन में ऐसे ही कई तरह के विचार उठते हैं । मन भी कितना पागल है ना , उसे कहो कहानी लिखने तो कविता लिखने लग जाता है, कविता लिखने को कहो तो पत्र लिखने लगता है ।
सच कहूँ तो मुझे इतने वर्ष हो गए जीते हुए , पहले लगता था थोड़ा अकेलापन, तन्हाई , जब बेटी अर्चना की शादी हुई , बेटे बाहर चले गए जॉब पर । पति वकालत में व्यस्त रहते रहते शहर में रम गए । पर मैं तो शिक्षण में रही हमेशा बाल बच्चों से घिरे हुए । कभी लगा ही नहीं कि अकेली हूँ ।
अकेलापन और एकांत दोनों अलग अलग बातें हैं । मैंने एकांत को चुना और फिर अकेलापन खलने के बाजय आनंददायी हो गया । जैसे कोई रोमांटिक बॉयफ्रेंड ।
मैं मोमबत्ती बत्ती जलाई और थोड़ी देर तक उसे देखती रही । उसका प्रकाश कैसे फैल रहा है पूरे कमरे में । बल्ब और मोमबत्ती में कितना फर्क है । पर बल्ब की रोशनी में रहते रहते जब एक एक आज वैसी रात आई कि मोमबत्ती जलानी पड़ी । ऐसा लग रहा है जैसे वो प्रकाश के साथ साथ शांति भी बर्षा रहा हो हम पर । मुझसे जैसे बात करना चाहता है । मगर शब्दों में नहीं, बस अपलक उसे देखते रहने निहारते रहने से । और ऐसा लगा जैसे वो मेरे हृदय में प्रवेश कर गया और मैं उसमें । वो असीम शांति को कैसे अभिव्यक्ति दूं ।
और शायद यही कारण है हृदय में तरंग उठी और कुछ लिखने की इच्छा हुई । पर ये सब इतनी तेजी से होता हुआ प्रतीत होता कि कभी पता भी नहीं चलता । मैं लिखने क्यों बैठ गई अभी तो लेटे लेटे पढ़ रही थी ।
कभी कभी सोचती हूँ ये रात क्यों आती है, क्या हमेशा दिन ही ना रहे, फिर ख्याल आया हम सोते क्यों है , ये ख्याल इसलिए आया क्यों कि आँखें इस हल्की रोशनी में बार बार बन्द होना चाहती है । बोझिल सी लगने लगी । यही तो नींद के आने की दस्तक है । हम सोते हैं तो प्रकृति भी विश्राम चाहती है ना । इसलिए रात दिन, सुख दुःख, मिलान वियोग का क्रम चलता रहता है । अगर रात नहीं होती तो क्या हम टिमटिमाते तारे देख पाते शायद कभी नहीं ।
जब छोटी बच्ची थी और जिस दिन जानी थी कि तारे हमेशा उगे रहते है पर सूर्य की रोशनी में दिखाई नहीं देते । उस दिन कितनी आश्चर्य में पड़ गई थी मैं । आश्चर्य की वो ठीक वही प्रतीति अब भी अनुभव होती है जब बल्ब की लाइट में जीते जीते आज मोमबत्ती जलाई । मोमबत्ती को जलाते ही ऐसा लगा जैसे कितने दिनों बाद बिछुड़े हुए प्रेमी से मिली हूँ । है तो ये वस्तु ही पर ये प्रकाश जिससे हमारी आँखें देखने में सक्षम होती है । यह उस कहीं ना कहीं प्रेम की प्रतीति कराता है । प्रेम को तो बस बहाना चाहिए वो तो अपने आप छलकाने लगता है चाहे आँसू के रूप में , चाहे मुस्कराहट के रूप में ।
मोमबत्ती जलते जलते छोटी हो गई और प्रकाश और बढ़ता गया , बाती बड़ी होने की वजह से । क्या ऐसा तो नहीं जैसे जैसे हम जीवन व्यतीत करते हुए आगे बढ़ते हैं हमारा परम् शांति की ओर मिलन की यात्रा तीव्र हो जाती है। कहीं मैं भी इसी प्रकाश से निकली हुई एक किरण तो नहीं ।
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