गुरुवार, 3 जून 2021

 हमसफ़र जूता


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हमसफ़र जूता । बहुत अच्छा नाम है सर । आज आपका ब्रांड किसी परिचय का मोहताज नहीं । इतने कम समय में आपने जो ग्रोथ किया है वो काबिलेतारीफ है ।
सबसे पहले ये बताइए कि आपको ये नाम कैसे सुझा मेरा मतलब है कहाँ से इंस्पिरेशन आया ।
पत्रकार, हमसफ़र फुटवियर के मालिक रघु राजन जी से एक इंटरव्यू में पूछा ।
रघु जी- देखिए, मुझे तो ये नहीं मालूम कि नाम कैसे आया पर यहाँ तक जो इसकी एक लम्बी कहानी है । उसे मैं कहे देता हूँ । अगर आप कहें तो । पत्रकार जिज्ञासा पूर्वक कहा- हाँ , हाँ प्लीज कहिए ।
रघु जी - मेरा शुरू से शौक था कि मैं पुलिस बनूँ । या डिफेंस में जाऊं । पर आप तो जानते है उस लड़के को जो बेंच पर सबसे पीछे की सीट पर बैठता है । स्कूल प्रेयर के बाद आप उसे रोज फटे हुए जूते पहने होने के कारण पिटे जाते हुए देखते
। मेरी पढ़ाई लिखाई कस्बाई स्कूलों में हुई जहाँ मेरी खूब पिटाई होती । शरारती तो था ही । और लापरवाह भी । सबको अपने होमवर्क की चिंता होती और मुझे अपने जूते की । मैं सोचता अगर पुलिस बन गया तो दोनों काम हो जाएगा । एक तो पुलिस के जूते मुझे पहनने होंगे दूसरा इन शिक्षकों की भरपूर पिटाई करूँगा ।
(हंसते हुए )
फिर आई बात कॉलेज की वहाँ भी परेशानी कम नहीं हुई । रोटी , घर, कपड़ा , का तो इंतजाम हो जाता मगर जूते की बारी आते आते जेब में से पैसे नदारद हो जाते । बेरोजगारी के दिन । सोचा किसी तरह कॉलेज कंपलीट कर कोई नौकरी ले लूँगा । पर जो लड़का मेट्रिक में घिच तीर कर पास हुआ हो वो लड़का इतनी भीड़ भड़क्का में नौकरी कैसे ले सकता है ।
अब वो दौर शुरू हो गया जिसमें लोग धक्का खाते हैं । ताने सुनते हैं । एड़ी चोटी एक कर देते हैं । पर घिसे हुए जूते के आलावे कुछ नहीं मिलता । ऐसा लगा मेरी ज़िन्दगी भी बिल्कुल इसी तरह घिस गई है ।
मेरे दोस्त लोग मेरा मजाक बनाते क्योंकि मेरे पास जूते तो थे पर ऐसा लगता हड़प्पा सभ्यता के भग्नावशेष से मिला हो । हालांकि अभी बचपन वाली स्थिति नहीं थी । बचपन में मेरे जूते में से अंगूठे तो हमेशा झाँकते हुए पाए जाते । पर बचपन की बात तो और है अब बड़े हो गए थे ।
कॉलेज की खास बात ये होती है आप लिखने पढ़ने में कैसे भी हों कोई बात नहीं मगर आपके पास गर्ल फ्रेंड नहीं है तो आपको डूब मरना चाहिए । क्या करें वातावरण ही ऐसा था । और एक बार तो आखरी पॉइंट तक आते आते एक लड़की हाथ से निकल गई । कारण बस वही । मेरा हमसफ़र जुता । लड़की भी पटे, नौकरी भी ना लगे, और आस पास इज्जत लूटने का डर हो । तो जिन्दगी बोझ लगने लगी ।
पत्रकार- आपके माता पिता ।
रघु जी- माता पिता भी थे पर अब स्वर्ग सिधार गए । पर माता पिता का भी बचपन से खूब आशीर्वाद रहा । जूते मांगने पर तो घर में जैसे भूचाल आ जाता । माता पिता आपस में ही लड़ पड़ते और उस लड़ाई के क्लायमेक्स का विलेन मुझे घोषित कर दिया जाता । जिसके परिणाम स्वरूप कभी जूतों से कभी चप्पल से पिटाई होनी तय थी ।
पत्रकार - ( हंसते हुए ) फिर भी आप बने रहे ।
रघु जी- नहीं, बनते बनते हर बार परिस्थितियों के फिसलन की वजह से मैं कई बार गिरता गया । और लगा कि अब जिन्दगी को अलविदा कहने का समय आ गया है ।
कड़ी धूप, दोपहर का समय, पुल पार करने से पहले मैं वही बैठ गया । और अचानक मैंने एक आदमी से पूछा भाई साहब , मरने के लिए सबसे आसान उपाय कौन सा होगा । पुल से कुद कर, या ट्रैन के नीचे आने पर, या सड़क पर गाड़ी से ।
वो व्यक्ति सज्जन रहा होगा, उनसे डरते हुए कहा, भैया ये तो मुझे एक्सपेरिएंस नहीं है । आप किसी दूसरे से पूछ लीजिए । इतना कहते हुए वो चला गया ।
मैं अकेले पुल की ऊंचाई देखता रहा, इतने में एक आदमी आवाज देता है, ऐ लड़का ... ऐ....
मैंने इशारे से पूछा मुझे। वो बोला और नहीं तो किसे, जल्दी आओ ।
वो आदमी ट्राई साइकिल पर बैठा था । मुझे धक्का लगाने के लिए कहा । पीछे सीट पर लिखा था हमसफ़र । उसने कहा मुझे पुल पार करवा दो । वो ऐसे बोला जैसे वो मुझे पहले से जानता हो । खैर मैं उससे वो बात पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाया ।मेरी नजर उसके पैर पर पड़ी । दोनों पैर विकलांग । जुते पहनने का सवाल ही नहीं ।
वो बोलने लगा । आज मेरा बेटा आया ही नहीं । आज काम भी ज्यादा है । और कोई आदमी भी नहीं । जिन्दगी में परेशानी अकेली कब आती है । ऊपर से धूप । बैंक से निकलते निकलते हो गया लेट । पकड़ा गए धूप में । और तुम नहीं आते तो और ना जाने कितना इंतजार करना पड़ता ।
क्या नाम है तुम्हारा । तुम क्या कर रहे हो अभी । मेरा मतलब है कहाँ काम करते हो ।
इतना पूछना था कि मैं घबरा गया । आना कानी करते हुए बात करते हुए चलता गया और उसके दुकान पर पहुंच गया ।
वहाँ पहुंचा तो मैं दंग रह गया कि यह आदमी इस स्टोर का मालिक है । जहाँ मैन्युफैक्चरिंग का भी काम होता है । उसने मुझे अपना वर्कशॉप दिखाया । फिर क्या था ।
मैं बाहर बैठ कर अपने जूते को निहारने लगा । आज मुझे अपने जूते की असली कीमत पता चली । और उसके साथ ही अपने पैर के महत्व का भी पता चला । तब से मैंने उन्हीं को जीवन दे दिया क्योंकि आखिर उसी ने बचाया मुझे । दूसरी बात जो सबसे अद्भुत लगी वो ये की जिस आदमी के पास पैर नहीं । जो आदमी जुता नहीं पहन सकता हो वो पूरे शहर को जूता पहना रहा है ।
अब हम दोनों एक दूसरे के हमसफ़र बन गए । और 'हमसफ़र जूता ' बाजार में आना शुरू हो गया । वो जो उस दिन मैंने जूता पहना था अब सचमुच संग्रहालय में रखे जाने की मांग की जा रही है ।
पत्रकार - अंत में रघु जी आप क्या संदेश देना चाहेंगे युवाओं को ।
रघु जी - हमारे जूते का जो ब्रांड है , उसका टैग लाइन है - its time to move. रुको नहीं । अटके की गए काम से । आगे बढ़ना ही जिन्दगी है । हमारे 'हमसफ़र जूते' पहनें और अपनी मंजिल तक पहुंचें ।
पत्रकार- हमारे इस कार्यक्रम में आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ।
रघु जी- आपको भी बहुत बहुत शुक्रिया ।

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#rachnatmak_sansar
#abhinandan_creations

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