सोमवार, 26 दिसंबर 2016

दृष्टिकोण

स्कूल में सम कोण, विषम कोण, त्रिकोण, षटकोण, संगत कोण और ना जाने कितने तरह के कोण पढाये- बताये जाते हैं. किन्तु एक कोण ऐसा है जिसे ना किसी स्कूल या ना कॉलेज में बताया जाता है. वो है दृष्टिकोण. जिसे नज़रिये के नाम से भी नवाजा गया है. जो जीवन के अनुभवों से संग्रहित,पुस्तकों से सिंचित एवं बुजर्गों के सुझाव से पल्लवित, पुष्पित होकर निखरता- महकता है. 

दृष्टिकोण यानी नज़रिया. इसका दायरा बहुत बड़ा है. ये समझने के लिए, जितनी मुश्किल है उतना ही जरुरी भी. इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा अनुसन्धान किये जाने की जरुरत है. नजरिया यानि दृष्टी कोण. जितनी नज़र उतने नजरिये. जितने ज्यादा शब्द उतनी ही मात्रा में दृष्टिकोण. जिस प्रकार एक पत्थर में जितने कण हो सकते हैं ठीक वैसे ही उतने ही विचार, उतने ही दृष्टीकोण जो किसी भी वस्तु या विषय पर परिलक्षित होते हैं. शायद एक अलग नज़रिए से दुनिया को, जीवन के अनेक पहलुओं का अवलोकन कर उसकी व्याख्या करना दार्शनिकता कहलाती है.

हम अपने दैनिक जीवन में कई तरह बातें सोचते हैं और उसे पूरा करने की कोशीश करते हैं. हमारे हाथ कभी सफलता, तो कभी असफलता लगती है. इन सफलताओं और असफलताओं या किसी भी खेल का जीत या हार पर हमारा दृष्टीकोण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. हमारी मानसिकता ही हमारे जीवन के विभिन्न परिणामों के लिए जिम्मेवार होती है. हमारी जो वर्तमान सोच है या जिस तरह से सोचने का तरीका है, ये सारी चीजें एक दिन में नहीं बदली जा सकती है. हमारे दृष्टीकोण को मूर्तरूप लेने में काफी समय लग जाता है या यूँ कहें कि समय के साथ-साथ हमारी सोच भी बदलती जाती है. हमारी सोच, हमारे दृष्टी कोण का ही परिणाम है.

हम किस क्षेत्र, किस धर्म, किस भाषा से ताल्लुक रखते है?, हमें बचपन से आज तक किस तरह के वातावरण में पढने लिखने का मौका मिला?, हम किसी सदी में पैदा हुए ? उसी सदी में कौन- कौन से विश्व्यापी घटनाएँ हुई? उस समय में तमाम क्षेत्र के नेता के स्वयं के दृष्टी कोण और फैसलों से सामाजिक दृष्टि कोण प्रभावित होती है. सामजिक दृष्टिकोण को बदलने या प्रभवित करने में मिडिया की भी महत्व पूर्ण जिम्मेवारी होती हैं.

कुछ चीजें हमें बहुत पसंद होती हैं और कुछ चीजें बिलकुल ही नापसंद. ये पसंद और ना पसंद हमारी मनोवृति की सूचक होती है. जैसे हमारी मनोवृति होती है वैसा ही हमारा स्वाभाव और वर्ताव होता है. चूँकि हर मन की अपनी मति और गति होती है. ऐसा माना जाता रहा है मानव मन बड़ा चंचल होता है. इसे स्थिर करना बहुत ही मुश्किल काम है. जैसे कि आंधी में दीपक को बुझने से रोकना. खैर ये तो साधू संन्यासी का काम है कि अपने मन को वस में रखना. एक आम इन्सान इस विलासी दुनिया से कैसे बच सकता है.आपने भी धर्मात्माओं को कहते सुना होगा मन को संतुलित और संयमित करने के अनोकों फायदे हैं और अगर आप अपने अंतर मन से दोस्ती कर लेते हैं तो आपके अन्दर की ज्योति जलते देर ना लगेगी. दुःख, सुख, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान क्रोध आदि तामाम तरह की भावनायें हमारे में समय और परिस्थति के अनुसार घूमते रहते हैं. हम उन्हें आजीवन झेलते, सहते और महसूस करते रहते हैं. हम कभी अपने मन के प्रत्यक्षदर्शी होते हैं तो कभी मन और हमारा भेद मिट सा जाता है और जब मिटता है तो उस प्रक्रिया को उस वक्त महसूस नहीं कर पाते. जब वक्त बदल जाता है तब हमें ध्यान आता है कि हम किस स्थिति में और हम क्या सोच रहे हैं. इस सोच के फायदे नुकसान क्या है? इन तमाम घटनाओं को देखते हुए हम पातें हैं कि हमारा मन अगर दर्पण है तो हमारा दृष्टीकोण हमारा नजरिया हमारी सोच उसका प्रतिबिम्ब. हालाँकि हम 100% नहीं कह सकते कि हमारी सोच पर सिर्फ हमारे मन का ही प्रभाव है हमारे नजरिया पर एक दृष्टी से देखा जाये तो दिमाग की भूमिका अधिक है हमारा दिमाग ही हमें सोचने को मजबूर करता है सोच को व्यवस्थित करता है विचार को उत्पादित पोषित संचारित करता है. ये चाहता है पर वह ठीक तरीके से काम नहीं कर पाता. इसका मूल कारण है कि हम जो परिणाम चाहते है, उसके लिए हम अपने दिमाग को ट्रेंड (प्रशिक्षित) नहीं कर पायें हैं. और जहाँ तक हम अभी सोचते हैं उतने तक ही हम अपने दिमाग को डेवलप कर पायें हैं. अपने दिमाग को प्रशिक्षित करना बड़ा कठिन काम है.किन्तु ऐसा नहीं है दिमाग तभी प्रशिक्षित होगा जब हम करना चाहेंगे. यह वातावरण और घर परिवार यहाँ तक कि गर्भ से ही प्रशिक्षित होता चला जाता है. यही कारण है कि कुछ बच्चे भूत का नाम सुनकर डरते हैं तो वही कुछ बच्चे हँसते हैं. ऐसे फर्क का एक मात्र कारण है बचपन में उसे माता- पिता द्वारा दी गई सुचना या उनके द्वारा किया कहा गया बर्ताव है. मान लिया जाय कि हमने शाहरुख़ खान की फिल्म ‘ॐ शांति ॐ’, ‘मैं हूँ ना’ या कोई भी देखी. उस फिल्म को देखने के बाद फिल्म के पोस्टर के प्रति जो नजरिया बना था, उस फिल्म को देखने के पहले वैसा नहीं था. यानि सूचनाओं से हमारी सोच बदलती है सूचनाओं से हमारी धारणा परिपक्व होती है यह अलग बात है कि वो सूचना सच्ची हो अथवा झूठी. पर इतना तो निच्शित है कि झूठ हो या सच तमाम तरह की बातों से हम कहीं ना कहीं प्रभावित, प्रेरित, कुंठित या क्षुब्ध आदि होत्र हैं. ऐसे नजरिये की स्थिति में समय का योगदान भी कम आँका नहीं जा सकता है. अगर समय पर सूचना नहीं मिली तो हमारी सोच अलग होगी अगर समय से पहले ज्ञान व जानकारी हमें प्राप्त हो जाती है तो समस्याओं से मुकाबला करने में हमें ज्यादा परेशानी नहीं होती है. 

तो सवाल उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए ? इस तरह उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए? इस तरह के नज़रिये का स्वागत किया जाना चाहिए पर जहाँ सफलता की बात हो तो सकारात्मक नजरिया अपनाना चाहिए. कभी कभी हम देखते हैं कि कुछ तरह के दृष्टी कोण हमने लाभ कम हानि ज्यादा पहुंचाते हैं. ये लाभ हानि का सही आकलन हमें तब मिलता जब हम निश्पक्ष होकर देखते हैं और लाभ हानि को हम उसी रूप में सहते हैं जिस रूप में अंत में अपना नजरिया बनता है उस वस्तु या विचार के प्रति. यदि तमाम रूकावट झंझावातों से हमारे नजरिये बनते बदलते रहते हैं. अंत में यह प्रक्रिया कुछ धीमी हो जाती है कभी यह प्रक्रिया रुक जाती है और जब रुक जाती या जब परिपक्व हूँ जाती है वह एक व्यक्तिव और विचारधारा के नाम से जानी जाती है तो वह एक व्यक्तित्व और विचार धारा के नाम से जानी जाने लगती है. ये नजरिया ही है जो हममें उत्सुकता, कौतूहलता, उत्साह आदि ना जाने कितने तरह की भावनायें हम में भरता है. इस नजरिया से ही हम अपनी बातों को भावनाओं को प्रकट करते हैं. हमारी जैसी सोच होती है वैसा ही हमारा लक्ष्य होता है उन लक्ष्य को बना कर ये नजरिया ही कभी हमें प्रेरित तो कभी पराजित करता है कभी खोखले होने का भंडाफोड़ करता है तो कभी गुणों की प्रशंसा करता है. हम अपने ही नज़रिए से दुःख से कभी ज्यादा दुखी कभी कम दुखी होते दुःख का कारण तो वैसे का वैसा ही पर समय के साथ हमारा नजरिया बदलता जाता है फिर हम उसे विचार को उस भावना को दूसरे ढंग से देखने लगते हैं मान लिया जाय. किसी अपने प्रियजन की मृत्यु या जन्म होता है तब उस वक्त शोकाकुल या प्रफुल्लित हो जाते पर जैसे ही समय बदलता वैसे ही हमारी सोच भी बदल जाती है. हम एक नज़रिये से नकार देते हैं कि उनकी उमर हो चली थी जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सकता है कि उनकी उम्र हो चली थी, जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सका है? आदि तरह की विचार को अपने नज़रिये पर थोप कर उस दुख से कभी निजात पाने की कोशिश करते हैं,भूलने की चेष्टा करते हैं. बातें जो भी हों पर जिन्दादिली से अपने नज़रिये को दुरुस्त रखने के लिए नजरिया को नापने तौलने की जरुरत तो रहेगी ही.

- अभिषेक कुमार 
-abhinandan246@gmail.com


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रं भिया
(पत्रिका के नाम एक पुरानी चिट्टी)
दिनांक- २७.०९.२०१४ शनिवार
पिछले काफी समय से मैं सोचता रहा हूँ कि कोई ऐसी पत्रिका हो जो हमें नाट्य संसार साथ-साथ साहित्यिक दुनिया में ले चले.जो हमें अपने संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और परम्परा से जोड़े रहे. ऐसी पत्रिका जो हमारी कला प्रतिभा को जागृत करे. हमें ऐसा माहौल दे ताकि हम समाज के बारें में सोचे, उसे संगठित करने विकास पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा ले सकें. रंग अभियान ३४वाँ अंक, स्नेह पात्र संजय कुमार द्वारा १५.०९.२०१४ को मुझे प्राप्त हुआ. स्वाभाविकतः मैं पत्रिका पाकर प्रसन्न हुआ पर मेरी यह प्रसन्नता सामाजिक रूप से कम व्यक्तिगत रूप से ज्यादा थी.
इस पत्रिका के पूर्व आप (संपादक अनिल पतंग जी) की रचना ‘प्रोफ़ेसर सपना बाबू’ की तेइसों कहानियों सहित सभी पत्रों को मैंने पढ़ा. आपके साहित्य और संवादशैली ने मुझे काफी प्रभवित किया. आपके नाम और कम दोनों बेजोड़ हैं. मैं काफी आश्चर्य चकित होता हूँ कि आप जितने सक्रिय रंग मंच में उतने ही प्रिंट मिडिया और वेब मिडिया में भी, अब तो सिनेमा की दुनिया में भी हैं.
यूँ तो मेरी नाट्य और साहित्यिक कुशलता नगण्य है परन्तु कला के विविध रंगों के प्रति मेरी गहरी आस्था और अभिरुचि है. मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूँ कि संजय जी के आमंत्रण पर प्रोफ़ेसर सपना बाबू पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में शामिल हो सका. सभी में बेहतरीन बातें सुनने को मिली पर इन सबसे बढ़कर मुझे हिंदी साहित्यिक की जमीनी हकीकत और हालत क्या है इसकी सीख मिली. हिंदी की दयनीय स्थिति से अवगत होकर काफी दुःख हुआ.
 जब मैंने रंग अभियान ३४ के ‘रंग मंच और सिनेमा’ आलेख पढ़ा तो ऐसा लगा मानो नौटंकी के सारे भेद खुल गए. सच पूछिए तो आपके सम्पादकीय आलेख की जितनी प्रशंसा की जाये कम है. अब जरा इस वाक्य पर नज़र डालें जिसमें आपने लिखा है “दो चार नाटकों में अभिनय मात्र करने के बाद वे बहुत बड़े निर्देशक सॉरी डायरेक्टर (अंग्रेजी शब्द जरा वजन बढ़ा देता है) समझते है.” भला इन वाक्यों को पढ़ कर इन बातों को भली भातीं अनुभव करते हैं. ऐसे अनेकों उदारहण प्रस्तुत किये जा सकते हैं.
पत्रिका के विभिन्न स्तंभों जैसे साक्षात्कार, स्मृतिशेष, नाट्य लेख एवं हलचल आदि सभी संतोष प्रद हैं. लोक एवं नाट्य कला की स्थिति विषम है. साथ यह भी डर है कि सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराएँ कहीं विलुप्त ना हो जाये क्योंकि वैश्वीकरण और आधुनिकता की आंधी से थमने वाली नहीं है. लोग देशी चीजों को उतना महत्व नहीं देते. उन्हें दूर का ढोल सुहाना सुहाना और घर की मुर्गी दल बराबर लगती है. देशी कलाकार हो या दर्शक सभी फ़िल्मी और टीवी सिरयलों की तरफ रुख करते हैं. इसके दो कारण हो सकते है- पहला नौटंकी आम लोगों तक पहुँच नहीं पा रही और दूसरा नौटंकी क्या है, इसे किस रूप में लें. ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पा रहे हैं.

ऐसे में अतुल जी जैसे कलाकार ही सजग प्रहरी की भांति लोक कला के ध्वज को सँभाले हुए हैं. ऐसे ही महानुभावों के सत्यप्रयासों से नाट्य एवं कला क्षेत्र का कायाकल्प हो रहा है. लोग उनके कार्यों को समझने लगे हैं. परिस्थिति बदल रही है. लोक कलाकारों को सम्मान मिल रहा है.

अतुल यदुवंशी जो इलाहबाद के भारतीय कला महा संघ के अध्यक्ष हैं. इनके साक्षात्कार आलेख ने मुझे प्रभावित किया. “समाज,सुधारक बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा व्यवहार परिवर्तन मूल्यों और आदर्शों के प्रति स्थापन के लिए लोक नाट्यों का प्रयोग किया जाता था.ना कि नाच का जिसे आज तथाकथित रसिक लोग इसमें ढूंडते हैं” देश और समाज को सही दिशा देने एवं उन मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने का एक हथियार के रूप में लोक कलाओं का प्रयोग किया जाता रहा है. इनके द्वारा कहीं ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं.

मेरी दृष्टि में रंग अभियान के फायदे और उद्देश्य-
लोगों में सामाजिक के गलत – सही चीजों के प्रति जागरूकता पैदा होती है. वे समाज और साहित्य से जुड़ते हैं. लोगों में एकता और शिष्टता का विकास होता है.लोग अपने कर्मों और विचार के प्रति सजग होते हैं. रंग कर्मियों, रंग प्रेमियों को एक मंच प्रदान करती है ताकि वे अपने विचारों को रख सकें, प्रस्तुत कर सकें. साहित्यकारों, नाट्यकारों, निर्देशकों आदि को प्रेरित करती है उसके कार्यों को चिन्हित करती है उनकी कुशलताओं को निखारती है उसकी रचनाओं को सहेजती है ताकि वर्तमान के साथ साथ भूत और भविष्य दोनों सुधरे. नाट्य विधा का प्रचार- प्रसार होता है. इसी माध्यम से समाज को समयानुसार सन्देश देता है और इसी माध्यम से समाज को समयनुसार सन्देश देता है उसे वर्तमान समस्याओं से रूबरू कराता हैं. उसका हल ढूंढने का उपाय बताता है.कहाँ क्या कार्यक्रम हो रहा है? कौन कौन से कलाकार और निर्देशक शामिल हैं? नौटंकी या नाट्य मंचन किस विषय से जुड़ा हुआ था? इस तरह की तमाम ख़बरों से पाठक अवगत होते हैं. पत्रिका को पढ़कर अनेकों विचार मिलते है जिन्हें भविष्य के कार्यसूची में शामिल करना आवश्यक होता है. भविष्य के विकास कार्यक्रम को और अधिक सुचारू तरीके से कर पायें. इसके लिए मानव संसाधनों की पूर्ति करने में सहायता मिलती है. नाट्य क्षेत्र का तो विकास होता ही है साथ साथ पारंपरिक कलाओं का संरक्षण संवर्धन भी होता है.
तीन तरह के लोग होते हैं. पहला जो सिर्फ सोचते हैं कि ऐसा करना चाहिए पर वे करते भी है पर कुछ कमियों की वजह से सम्पूर्ण नहीं कर पातें यानि संघर्ष करते हैं तीसरा जो सोचते है और सफलता उनके क़दमों में होती है. इन तीनों तरह के लोगों को रंग अभियान प्रेरित,प्रोत्साहित और प्रतिष्ठित करती है. जिस प्रकार प्यासे को पानी चाहिए, उसी प्रकार जिज्ञासु पाठक को पत्र पत्रिका चाहिए. पाठकों को जितनी मात्रा में पाठ्य सामग्री चाहिए, रंग अभियान इसके लिए पर्याप्त है.
साक्षात्कार स्तंभ में आपकी प्रश्न शैली संतुलित और सहज है. अभिनेत्री उमा झुनझुनवाला के विचार और व्यक्तित्व बेहतरीन हैं. धरोहर के अंतर्गत नाटकार आबुर्जोफ़ और मोहन राकेश के विचार विमर्श को रंग मंच और नाटक पर सफल ऑपरेशन कहा जा सकता है क्योंकि रंगमंच से जुड़े लगभग जितने भी अंग है उनका बारीकी से जाँच- पड़ताल कर उन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है.
समकालीन रंग परवेश और नाट्य सौन्दर्य नमक आलेख जो डॉ. लव कुमार लवलीन द्वारा लिखा गया है. इसमें भीष्म सहनी के नाट्य रचनाओं की काफी विस्तृत चर्चा की गई साथ ही साथ उनके व्यक्तित्व, रचना प्रक्रिया सृजनात्मक दृष्टि संवेदनशीलता को काफी गंभीरता से परखा गया है और अध्ययन किया गे है. तेईस पेराग्राफों से सुसज्जित यह आलेख किसी भोज पर मिलने वाले गरिष्ठ भोजन से कम नहीं है. आलेख से पता चलता है कि लेखक के पास शब्द भंडार की कोई कमी नहीं है.
यहाँ संक्षिप्त रूप से इस आलेख के बारे में यही कहा जा सकता है कि नाटक की आत्मा, प्रकृति और सौन्दर्य को समझने समझाने का प्रयास सराहनीय और संतुष्टि दायक है.
अनिल पतंग बाबू अपने विचारों को जिस सरलता से रखते हैं, वह अन्यत्र कम ही देकने को मिलता है. उक्त बातें उनके नाट्यालेख “नाटक का भविष्य और भविष्य का नाटक पढ़ कर समझा जा सकता है ” आलेख का अध्ययन मैंने महसूस किया जिस महान उद्देश्य के लिए नाट्य रूपी इन्द्रधनुष की रचना की गई उसे कुछ स्वार्थी तत्व नष्ट करने पर तुले हुए हैं. पहली बात तो ये कि सामान्य जन से नाटक अभी भी कोशों दूर है. गाँव की स्थिति भी इस मामले में छिपी नहीं है. लोग मनोरंजन का मतलब सिर्फ मोबाइल और टी.वी को ही मानते हैं. उन्हें वे नाट्य कला या फिर सांस्कृतिक पारंपरिक नाच गण समय की बर्बादी है. इतना ही नहीं नाटक, नाच, गण आदि को आम जन सिर्फ देख सकते हैं उसमें शामिल होने या उसे अपने जीवन में शामिल करने की जरुरत नहीं समझते. आज की परिस्थिति ही कुछ ऐसी है. हमारे गाँव में जब कभी नाटक का आयोजन तो मुझे अभिभावक से वहां जाने की अनुमति नहीं दी जाती थी. उसमें शरीक होना तो दूर की बात. कक्षा दसवीं के दौरान समझ आया इसमें अभिभावक का दोष नहीं. दोष तो उन धन और पद लोलुप लोगों का है जो शुद्ध मनोरंजन की जगह अश्लीलता परोसते हैं और उसे मसाला कह कर प्रचार करते हैं. अंग प्रदर्शन की आँधियों में बॉलीवुड और हॉलीवुड में तो प्रतियोगिता छिड़ी है. भोजपुरी भी अपने लिक से हटकर, मसालेदार, संवाद, भड़कीले वस्त्र प्रदर्शन आदि फुधार्ता की हड को बखूबी पर कर रहा है. भला इस रंगीन समां में स्थानीय जिसे लोक कला कहा जाता है वो पीछे क्यों रहे?
इस विषम बेला में निराश होने के कुछ नहीं होगा. लोगों की मानसिकता में तभी बदलाव आएगा जब रंग अभियान से हम लोगों को जोड़ पायेंगे.  
बड़ी ख़ुशी होती है जब कहीं सार्थक नाटक पढने सुनने को मिलता है. आशा की किरण दिखती है, जब नाटक के चित्र किसी पत्र पत्रिका में छपे होते हैं. लगता है कि कही न कहीं प्रयास जारी है जिसे और अधिक सुचारू ढंग से प्रत्येक गाँव शहर में फ़ैलाने की जरुरत है. जब लोग अपने गाँव घर की किस्से- कहानियों को सुनने जिसे नाट्य के जरिये देखेगें, जहाँ आज भी साक्षरता दर काफी कम है वहां वे अपने कर्तव्यों अधिकारों के प्रति सचेत होंगे. वे अपनी समस्या का समाधान स्वयं धुन्धने का प्रयाश करेंगे. इन सबके अतिरिक्त नाटक का जो मूल उद्देश्य है मनोरंजन करना वहां सफलता के झंडे गड सकती है. ये इसलिए भी संभव हो सकता है क्यों कि हर गाँव में तो सिनेमा हॉल है नहीं. पर सामुदायिक भवन एवं परिसर जरुर होता है. बस छोटा सा क्षेत्र ही नाटक – नौटंकी के लिए पर्याप्त है. जहाँ तक छोटे – बड़े शहरों की बात है वहां के भी दर्शक रियल्टी शो ज्यादा देखना पसंद करते हैं. जरुरत है तो बस निरंतरता और सुव्यवस्था की. यह तभी हो सकता जब रंग अभियान से जुड़े तमाम लोग नारकर साहित्यकार नाट्यकर्मी मंच कर्मी निर्देशक अभिनेता एवं विभिन्न कलाकार व्यवस्थापक सभी अपने क्षमता नुसार प्रयास कर सकते हैं. नाट्य एवं कला संस्थाएं विभिन्न उप संस्थाएं स्थापित कर कार्यक्रम को आगे बढ़ा सकते हैं.
अंत में इस विषय पर मैं यही कहना चाहूँगा कि नाटक परंपरा और प्रगति दोनों को साथ लेकर चलें. नाटक के मंचन को अधिक से अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाये. उसे विभिन्न प्रतीकों, प्रतिबिम्बों,प्रकाशों, ध्वनियों और सज सज्जा सहित तमाम तकनीकों का उम्दा इस्तेमाल और विभिन्न प्रयोग किये जाने की जरुरत है. सार्थक और नए प्रयोग तभी हो सकते हैं जब तक अपनी प्रतिभा को बढ़ाया जाये और जो प्रतिभा वान हैं वे फ़िल्मी पर्दे की तरफ मुड़े जरुर पर रंग मंच को कभी न भूलें.


- अभिषेक कुमार
abhinandan246@gmail.com
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मंगलवार, 27 सितंबर 2016

बेगुसराय के बिल्लू बार्बर



बेगुसराय के बिल्लू बार्बर


सैलून, जहाँ कैंची और म्यूजिक दोनों साथ साथ एक ही लय में चलते हैं. जहाँ नए - नए आशिक और प्यार में धोखा खाए मजनुओं की मजलिश लगती है. जहाँ कुछ राजनितिक बहसें भी उस्तुरों की भांति कभी कभी लोगों को नुकसान पहुंचाती है. उस मजलिश के अध्यक्ष और कोई नहीं, हाथों और जुबान दोनों से कैंची चलाने वाले गुमनाम शख्स सैलून मास्टर होते हैं. यहाँ हर तरह केश की सुनवाई की जाती है और मुक्कमल हल भी आपको मिल सकता है. हेयर डिज़ाइन करवाना हो या सिरदर्द कम करना आप सैलून की तरफ रुख कर सकते हैं.

जाने से पहले पेश है बातचीत के कुछ अंश...



(सैलून में इंट्री लेते हुए)

मैं- “क्या हाल है? फुर्सत में हैं ?”

बिल्लू - “बिलकुल फुर्सत में हैं. अभी तक तो ठीक ही आप सबके कृपा से.....”

यहाँ गौर करने वाली बात है कि सन्डे को सारा सैलून व्यस्त हो जाता है. उनके कहने का मतलब - बीजी इज इक्वल टू फुरसत.

शीशे के सामने, फिटकरी के बगल में रखे Nokia 1st gen का वो मोबाइल फोन घरघराने - थरथराने (vibretion
) लगता है.

बिल्लू फोन उठाते ही कहते हैं- “हेल्लो”, हाँ कुछ सुनने के बाद हाँ जी. हाँ बिलकुल फ्री हैं आइए. हाँ... हाँ.....

सब हो जायेगा. आइए तो......; हाँ तो कितनी देर में आ रहे हैं? क्या. एक घंटे में. ठीक .ठीक है. फोन पुनः यथा स्थान रख दिया जाता है, बाल के छोटे-छोटे टुकड़ों से सने हाथों द्वारा.



मैं- “ये कब का फोन है? नया क्यों नहीं लेते?”

बिल्लू- “महाराज ! हम गरीब लोग. आपके ऐसा एंड्राइड कहाँ से आएगा.”

मैं- “सैलून इतना चमक रहा है तो फिर एक चमकने वाला फोन रखिए. इतना तो सस्ता- सस्ता मोबाइल मार्केट में मिल रहा है.”

बिल्लू- “जी आप सही कह रहे हैं. मुझे इस मोबाइल से प्यार है. ये मेरे साथ तभी से है जब मैंने इस सैलून की शुरुआत की थी.”

मैं- “क्या बात है. बहुत बढ़िया. क्या आप काम से कभी उबते नहीं हैं?”

बिल्लू- “नहीं, बिल्कुल नहीं उबता. हाँ जब बैठा रहता हूँ तो उब जाता हूँ.”

मैं- “आप कितने पढ़े- लिखे हैं? क्या फेसबुक यूज़ करते हैं?”

बिल्लू- “मेरे पास आपके तरह मोबाइल कहाँ है जो फेसबुक यूज़ करेंगे. एक साल पहले एक लड़का बना दिया था मेरा account पर नहीं पता उसका passward.”

मैं- “आप पढाई कितने तक किये है?”

बिल्लू – “सरकारी स्कूल . पांचवी पास फिर मन नहीं लगा. कलम चलाने में सो कैंची पकड़ लिए.”

मैं- “तो अखवार मंगाते क्यों हैं?”

बिल्लू- “थोड़ा बहुत पढ़ लेता हूँ. हीरो हिरोहीन की फोटो देख लिया हो गया.”

मैं- “आप तो बाल बड़ा अच्छा काट लेते हो ? किसी बड़े आदमी का बाल काटें हैं?”

बिल्लू- “जी हाँ. सपने में, कहा था एक बार शाहरुख़ खान का.”

मैं- “तो मुंबई क्यों नहीं गए?”

बिल्लू- “जाता पर मेरी शादी हो गई. फिर दो बच्चे. बूढ़े माँ- बाप. तो इन जिम्मेवारियों को पूरा करता था सपनों को.”

अब आखिरी सवाल मैंने चुटकुले और रोमांचक ढंग से पूछा.

मैं- “एक लड़की थी दीवानी सी. बहुत प्यार करती थी मुझे हमेशा फोन किया करती थी. पर दो माह से उसका फोन आना बन्द हो गया है क्यों...”

बिल्लू- “हँसते हुए. फँस गई होगी साली दुसरे के साथ.”

उनके रिएक्शन सुनकर मैं हंसने लगा.

दोस्तों ! हमारे मकान में जैसे नींव होती है. वैसे ही पेपर वाला, दूध वाला,चाय वाला, बार्बर, कोब्लर या चाहे फूटपाथ पर गुपचुप बेचने वाला शख्स ये सब ही हमारे सामाजिक ढांचे के महत्वपूर्ण इकाई और नींव हैं. अगर हम इनके काम को सम्मान नहीं देंगे. तो इनका कभी उत्थान नहीं होगा. और जिस समाज का निचला हिस्सा जितना उन्नत होता है वह समाज उतना ही सभ्य, सम्पन्न और समृद्ध होगा.

हम बड़ा काम नहीं कर सकते लेकिन बड़े काम करने वाले छोटे छोटे लोगों के साथ हम अपना वर्ताव तो सही कर सकते हैं. उन्हें कम से कम एक स्माइल तो दे ही सकते हैं सेल्फी के बहाने.



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बोलना जरा संभल के,
ये जंग का मैदान है.
कोई भी; कुछ भी बोल देता,
क्या बकवास बातों का ये खदान है?

कर दो पोस्ट कोई,
ये बहुत बड़ी दिवार है.
हर आदमी पर  है देखो,
एक धुन सी सवार है.

 ये जोडती है सबको,
सारे देशों की, ये एक किताब है.
कोई भी हो समस्या तुम्हें,
यहाँ हर सवाल का जवाब है.

जिन्दगी एक सफ़र है तो,
ये सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म है.
यहाँ इश्क है, यहाँ प्रेम है.
कोई कूल है, तो कोई वार्म है.

ये विद्वानों का संसद है,
तो मित्रों का अड्डा है.
लाइक्स से मिलती खुशियाँ,
ना जाने ये कैसा फ़ायदा है?

ये दुख की; ये आनन्द की,
हर समय की, ये अभिव्यक्ति है.
जब शस्त्र नाकाम है,
तो ये सबसे बड़ी शक्ति है.

- अभिषेक कुमार
abhinandan246@gmail.com



रविवार, 18 सितंबर 2016

गुब्बारा

गुब्बारा(बेचने वाली वो लड़की)
           
किसी का इंतजार करना बड़ा उबाऊ सिचुएशन होता है.ऐसे टाइम को पास करने का सबसे आसान तरीका है अपनी आँखें मोबाइल स्क्रीन पर गड़ाते हुए ऊँगली फेरते रहिए, लेकिन मेरे पास विकल्प नहीं था. मेरा मोबाइल फोन बैट्री ख़त्म होने का संकेत दे रहा था. मेरे लिए ये पल पकाऊ (irritating) था, पर रोचक (interesting) और यादगार (memorable) कैसे बन गया आइए सुनाता हूँ.इस स्टोरी को सुनाने की वजह यह भी है क्योंकि this scene is my first meet with a unknown girl.”

हवा में लहराते हुए रंग बिरंगे गुब्बारों का गुच्छा जो उड़ना चाहती है. एक पल तो लगता है बस अब उड़ने ही वाली किन्तु नहीं. पतले से धागे जो कभी दीखते है कभी नहीं, मदमस्त गुब्बारों को ठीक उसी तरह बांधे हुए है जिस तरह गरीबी उस मासूम सी लड़की को बांधे हुए है. वह मायूस सी लड़की फीकी सी मुस्कान लिए अपने हाँथों से गुब्बारों को सम्भाल रही है. वह उन गुब्बारों को इधर-उधर बहकने से बचा रही है, यह सोचते हुए कि कहीं गुब्बारा फूट ना जाये. अगर एक गुब्बारा फूट गया तो 10 रु० और मम्मी की मार अलग से. ना जाने कितने ख्याल कितनी बातें उसे उलझाये जा रही थी, बिल्कुल उस उलझे- बिखरे हुए बालों की तरह जो उसके सिर की शोभा बढ़ा रही है. शायद दो वक्त किसी तरह कुछ भी खाने को मिल जाये इसी जद्दोजहद को जिन्दगी कहते है शायद, उसके चेहरे यही बयां कर रहे हैं. 

वह हरे और लाल फूल वाले पैटर्ननुमा, धुल से सनी फ्रॉक पहनी हुई है, जिसके एक- आध जगह सिलाई खुले हुए हैं. कभी कभी वह दाएं हाथ से जो गुब्बारों का गुच्छा पकड़ी हुई बदल लिया करती थी अनायास ही उसकी उँगलियाँ उस फटे हुए भाग चले जाती, धुंधले मन से ये सोचते हुए कि काश उसके कपड़े सिले हुए होते. इधर- उधर चक्कर लगा कर मॉल की लम्बी –ऊँची सीढियो पर बैठ जाती है.इस इन्तजार में कि कोई आये और उसका गुब्बारा खरीद ले. सीढ़ियों पर मॉल में आने-जाने वाले ग्राहकों का ताँता लगा हुआ है.कोई उस तरफ देखता भी है तो कोई देखना भी नहीं चाहता. किसी को फुर्सत नहीं तो किसी को फ्री में सबकुछ चाहिए. एक ग्राहक गुब्बारे की तरफ आ ही रहा था कि वो लड़की खड़ी हुई किन्तु क्या मन में आया वह ग्राहक भी चलता बना.

इस शोरगुल और आवजाही में वह मौन होकर कभी चारों तरफ देखती रहती.फिर कभी बैठे- बैठे अपने गुब्बारों को अपनी आँखें उठाये निहारती रहती. उसकी आँखों में गुब्बारे का प्रतिबिम्ब पड़ते ही वह चहक पड़ती, मुस्कुराने लगती और मीठे स्वर में कहने लगती “गुब्बारा ले लो..., गुब्बारा......”

“कितने का है एक” ये आवाज सुनते ही वह लड़की पीछे मुड़ी. आवाज देने वाली महिला के पास जाकर कहती है “10 रु०”. ग्राहक महिला अपने साथ खड़ी 5 साल की बेटी से पूछी- “कौन सा बेलून चाहिए मेरे बेटे को?”

प्यारी सी बच्ची ने लाल गुब्बारे की तरफ ऊँगली से इशारा करते हुए कही “वो”. उस लाल बेलून का धागा अपने बेटी को पकड़ाते हुए अपने भूरे पर्स से रूपये निकालने लगी. 

गुब्बारा बेचने वाली लड़की, उस बच्ची को गुब्बारे से खेलती हुई ना देखकर उसके फ्रॉक को देखती है शायद वह ये सोच रही है कि काश मेरे पास भी उसके जैसा फ्रॉक होता. उस लड़की की मुखाकृति को देखते हुए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने अंतर्द्वंदों को वह मन ही मन झेल रही है. उसका एक मन उसे अच्छे कपड़े ना होने का एहसास दिलाता है तो दुसरे ही पल उसके पास एक नहीं ढेर सारे गुब्बारे होने की खुशियों का झांसा दिलाता है. 

“कहाँ देख रही है, ये लो 10 रु०” वह महिला पैसे थमाते हुए कार में जा बैठती है. कार आगे बढती चली गई, जिसकी खिड़की से वो बलून निकला हुआ था.

“कितना खुबसूरत लग रहा है ना भैया; लेलो तुम भी एक” वहीँ वाईक पर सवार एक जवान व्यक्ति से वो लड़की आग्रह करती है.

उस व्यक्ति के पीछे एक लड़की बैठी है मालूम पड़ता है उसकी गर्लफ्रेंड होगी. “ले लो ना जानू! कितना प्यारा है गुब्बारा.”गर्लफ्रेंड ने नखरीले टोन में उस व्यक्ति से कहा.

“तुम भी हद करती हो, क्या करोगी गुब्बारे का ? ”- व्यक्ति बोला.

“मैं अपने बेड रूम में लगाउंगी”- गर्लफ्रेंड ने जबाब दिया.

“ये लो. दिल वाला, इसके 20 रु० लगेंगे”- गुब्बारा बेचने वाली लड़की ने कहा.

(मुझे आश्चर्य हो रहा था,ये सोच कर कि एक गुब्बारे बेचने के लिए कितने ग्राहकों को झेलना पड़ता है)

“नहीं चाहिए. ये सब तुरंत फूट जाते हैं, फिर क्या फ़ायदा.” बाइक पर सवार वह व्यक्ति मुँह फेरते हुए कहा.

“नहीं फूटेगा, ये गुब्बारा अच्छा वाला है ”- लड़की बोली.

“फूट गया तो”- व्यक्ति ने कहा

“फूट गया तो और भी मज़ा आएगा”- लड़की बोली (हँसते हुए)

इतना सुनते ही उस व्यक्ति की गर्लफ्रेंड जोर-जोर से हँसने लगी.... और कही –“एक काम करो मुझे अपना सारा बलून मुझे दे दो ”

अचानक मेरा फोन vibrate हुआ.पॉकेट से मैंने मोबाइल निकला. स्क्रीन पर लिखा आ रहा था “unknown no Calling........”

मैंने फोन रिसीव करते हुए कहा “हेलो.....” .

उस गुब्बारे बेचने वाली लड़की को मेरी नज़र खोजने लगी पर शायद वो कहीं जा चुकी थी.

उधर से भी मुझे रिप्लाई मिला- “हेलो.” आवाज पहचानते हुए मैंने पूछा- “तुम कहाँ हो, मैं मॉल के सामने तुम्हारा एक घंटे से वेट (wait) कर रहा हूँ.”

“मैं मॉल के इंट्री गेट के सामने हूँ, ढेर सारा बलून लिए हुए”- वो बोली

“अच्छा वो तुम्हीं हो”- मैंने कहा.

उसके पास जाकर मैंने उससे पूछा ये व्यक्ति जो अभी गया कौन था ?

“वो....वो तो रिचार्ज वाले भैया थे.” उसने कहा.

“मैंने तो उसे तुम्हारा बॉयफ्रेंड समझ रहा था.आज कल तो दो –तीन बॉय फ्रेंड रखना आम बात हो गई है.”मैंने कहा.

“तुम भी ना.....” वो कहते हुए मेरे साथ मॉल में एंटर कर गई.

आज जब मैं इस कहानी को लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ वो गुब्बारा बेचने वाली प्यारी सी लड़की नए फ्रॉक के लिए पैसे इकठ्ठा कर चुकी होगी.



-अभिषेक कुमार 

abhinandan246@gmail.com



सोमवार, 5 सितंबर 2016

अम्बेदकर चौंक
  (ऐसी तस्वीर जो कभी नहीं बदलने वाली)

यूँ तो आपको सभी जिले के शहर में अम्बेदकर चौक मिल जायेगें. अगर अम्बेदकर चौक नहीं होगा तो कचहरी (व्यवहार न्यायालय) चौक तो आपने जरुर देखा होगा. वही कहीं आसपास डॉ. भीम राव अम्बेदकर (संविधान निर्माता) की प्रतिमा मिल जाएगी.ये प्रतिमा मिलना और होना दोनों जरुरी है क्योंकि हम आम नागरिक को, खास लोगों द्वारा बताए गए, महान बातों को भूलने की बीमारी होती है. डॉ. भीम राव अम्बेदकर बाएँ हाथ में संविधान लिए हुए और दायें हाथ से लोकतंत्र के मंदिर (संसद भवन ) की ओर इशारा कर रहे हैं. उनके बढ़ते कदम स्वर्णिम भविष्य की ओर अग्रसर हैं. वे एक महा स्वप्नदर्शी और सच्चे देशभक्त थे जिन्होंने देश को एक सूत्र में पिरोने का सतत संघर्ष करते रहे. वे चाहते थे कि सबको समान मौके दिए जाये और सभी लोगों को सामान अधिकार प्राप्त हो. वे चाहते थे कि सब लोग अपने सामर्थ्य और शक्ति अनुसार संघर्ष करें और देश के विकास में अपना सहयोग दें. ये बातें मुझे स्कूली दिनों में बताई गई थी. उस वक्त मैं सोचा करता था कि अगर सबलोग अम्बेदकर जी के बताए मार्ग पर चलेंगे तो सचमुच देश की तश्वीर बदल जाएगी.

शहर की एक सड़क है जो ट्रेफिक चौंक से अम्बेदकर चौंक होते हुए कचहरी चौंक तक जाती है. ये सड़क वहीँ ख़त्म नहीं होती.किन्तु हम आपको ज्यादा दूर नहीं ले जायेंगे. सड़क के बीचों बीच लम्बी सी दिवाइडर है जो पहले छोटी हुआ करती थी किन्तु जैसे जैसे समय बदलते गए वैसे वैसे दिवाइडर की ऊंचाई भी बढती गई.पता नहीं ये दिवाइडर और कितनी ऊँची होगी. गौर करने वाली बात ये है कि दिवाइडर सिर्फ सड़क को दिवाइडर नहीं करती. ये उन सोसाइटी को भी अलग अलग करती है जो सड़क के दोनों तरफ फैले हुए हैं. एक तरफ स्वर्ण आभूषण,महँगे ब्रांडेड जूते चप्पल की दुकानें और कई बड़े मॉल भी हैं. 

वहीँ सड़क के दूसरी तरफ चार पांच रिक्शा वाला अपने ग्राहकों के इन्तेजार में खड़ा है. आने- जाने वाले राहगीरों को वो तो बड़ी मासूमियत से निहार रहा है किन्तु गरीबी, भूख और धूप ने उसका चहेरा निर्दयी सा बना दिया है. जो की हर किसी को वो घूरता हुआ नज़र आता है. आखिर कौन समझे कि वो भी एक इन्सान है. उसके पास भी दिल है.मैंने कई दफा देखा है मोटी सी महिलाएं या पुरुष रास्ते ऊँचे होने पर भी रिक्शे से नहीं उतरते उलटे रिक्शे वाले को भला बुरा ही सुनाते. आगे बढ़ने पर लिट्टी चोखा वाला दो-चार लिट्टी बनाकर उसपर पंखे झेल रहा है, कहीं उस पर मक्खी ना बैठ जाये. आसपास गन्दगी का ढेर पर कई ठेले हैं. कोई पूरी तरह टूटी हुई, तो कोई खड़े रहने का प्रयास करते हुए, हालाँकि उसके जो पहिए है पूरी तरह नाकाम है. कई तो खुटों से बांध दिए गए हैं.उन ठेलों पर कई तरह की हरी सब्जियां पंक्ति बद्ध सजी हुई है.ऐसा लगता है कुछ सब्जियां ग्राहक के स्वागत गान के लिए खड़ी हैं. और जिन टोकरियों में सब्जियाँ बिखरी पड़ी हैं ऐसा लगता है मानों वे आपस में लड़ रही हैं. और कह रही हैं मुझे ले लो मुझे ले लो. इन सब्जियों को बेचने वाले वो लोग हैं जिन्हें अपना आवास नहीं है वो ठेला ही उनका एक मात्र ठिकाना है आशियाना है. जमीन पर बोरा बिछाए पूरा परिवार सब्जियां बेचने में जुटा है. बगल में ही एक गरीब गर्भवती स्त्री खुले कड़ी धूप में बैठी प्याज और लहसुन बेच रही है. वही छोटा सा अधनंगा 4 या 5 साल का लड़का, शायद उसी स्त्री का पुत्र होगा; जो बार बार ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने का असफल प्रयास कर रहा था. उसकी आँखों में एक डर है जो कह रही है प्लीज प्याज ले ना. नहीं तो मुझे भूखा सोना पड़ेगा. एक ग्राहक आया भी तो उस महिला से उलझ पड़ा कहने लगा कम क्यों तौल रही है? तुम लोग कैसी है रे एक प्याज चढ़ने नहीं देती. हाफ पैंट पहने, बाइक पर सवार एक गोरे ने खाली थैला बढ़ाया.थैला भर कर वो प्याज बेचने वाला जिससे थैला बड़ी मुश्किल से उठ रहा था.वो गोरा व्यक्ति पैसे उस बच्चे को सौ का नोट दिया और कहा चल जल्दी से छुट्टा ला. 

आप सोच रहे होंगे मैं वहां क्या कर रहा था. श्री मान ! वहाँ से कुछ ही दुरी पर एक चाय की दुकान है. बढ़िया चाय बनता है. आगे तो आप समझ ही गए होंगे मैं कड़ी धूप में वहां चाय तो नहीं पी रहा होउगा. मेरे हाथों में मेंगो फ्रूटी ही होगा. खैर, मोल भाव करने वाले वो लोग हैं जो रेस्टोरेंट में 500 रु एक वेटर को देने में नहीं हिचकते.चलिए उस प्याज वाली के बगल में एक बूढी औरत बोरे और थैले से भुट्टा निकाल रही है. शाम होते ही उसका गरमा गरम भुट्टा बिकने के लिए तैयार हो जायेगा, किन्तु भुट्टा पकाने के पहले सारा इंतजाम करना पड़ेगा ना. सो वो चूल्हे में कोयला डाल रही है साथ ही दमघोटू धुंए से जूझ भी रही है.सोचता हूँ क्या जरुरत आ पड़ी इस बूढी को भुट्टा बेचने की. क्या इसका बेटा इन्हें छोड़ अपनी पत्नी के साथ कहीं चला गया है या फिर इसे घर से निकाल दिया गया है.

दुसरे दिन की बात है. मॉल के ठीक सामने. रोड के दूसरी तरफ, भुट्टे वाली सब्जी वालों के कतार में ही. मैं अपने एक मित्र के आग्रह पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ठीक वहीँ पर एक मोची बैठता है.जूते चप्पल रिपेयरिंग करता है.मैंने देखा कई लड़कियां जो पेंसिल हिल वाली सेंडिल में काँटी ठोकने के बाद उस मोची को इसलिए भला बुरा कह रही थी कि उसने 10 रु ज्यादा मांग लिए. मैं पूछता हूँ क्यों. आखिर क्यों हम लोग ऐसी आदत के शिकार होते जा रहे है कि सिर्फ और सिर्फ अपने ही बारें में सोचते हैं. अपने थोड़े से लाभ के लिए दुसरे से लड़ते रहेंगे. जरा सा कुछ हुआ नहीं कि बेवजह तमाशा बनाना इस दौर का शगल हो गया है. तुनक मिजाजी मानसिकता जिसे मेंटल वार्मिंग नाम दिया जा सकता है, हमारे ऊपर हावी होता जा रहा है.

वो मोची वाला शायद सही कह रहा था ac ऑफिस में बैठने वाले लोग कब समझेंगे कि सड़क के किनारे धुल और धूप फंखाते हुए काम करने की क्या कीमत होती है. 



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शनिवार, 3 सितंबर 2016

आदमी और कुत्ता

दो चार लोगों में कुत्तों के रोगों को लेकर काफी चर्चाएँ हो रही थी. मैंने भी सोचा अपनी तरफ से कुछ कह दूँ. तो बिना सोचे समझे मैंने अपना विचार उन मित्रों के सामने रख दिया. मैंने कहा “आदमी और कुत्तों में काफी समानताए दिखने लगी है.यहाँ समानता से मेरा अभिप्राय भोंकने से है.अगर आप वफादारी की बातें सोच रहें हैं तो मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कुत्ते और आदमी में वफ़ादारी में समानता की बात करना मुर्खता होगी.” इतनी ही बात मैं कह पाया था की मेरा मोबाइल जोर जोर से बजने लगा.फोन पर बात करने के बाद किसी कारण से मुझे वहां से प्रस्थान करना पड़ा.
मुझे लगा की मुझे उन लोगों के समक्ष कुछ ऐसी बातें करनी चाहिए जो बेमतलब हो. सच पूछिए तो लोगों को फिजूल की बातें में बड़ा आनन्द आता है किन्तु जैसे ही कुछ सामजिक बातें या सूझबूझ भरी बातें किए फिर तो आप की खैर नहीं नहीं. आप बिल्कुल उस मेमने की तरह महसूस करेंगे जो चारों तरफ आवारा कुत्तों से घिरा हो. जब मैं वहां से आ रहा था तो मुझे कुत्तों का झुण्ड दिखाई पड़ा जो सब के सब एक दूसरे पर भौंक रहे है. मैं उस गली से दूसरी गली की तरफ मुड़ गया. क्योंकि मैं कुत्तों से बहुत डरता हूँ.
दूसरे शाम मुझे नुक्कर नाटक व हास्य कार्यक्रम देखने को मिला.वहां काफी मनोरंजन हुआ. एक व्यक्ति कुत्तों की मिमिकरी कर रहा था कुत्तों की विभिन्न प्रकार के आवाज निकाल रहा था. कुत्तों के बहुत सारे हरकतों को जानने और खुल कर हँसने का मौका मिला. उस शाम के बाद मेरी रूचि में परिवर्तन सा हो गया है.मैं कभी भी कुत्ते पालने का शौक़ीन नहीं रहा हूँ.
मैं शहर में नया तो नहीं हूँ. फिर भी ना जाने क्यों, हवा बदली हुई सी लग रही है. हर दूसरा आदमी भूखा,बदहवास सा हांफता हुआ बिलकुल कुत्तों जैसा दिख पड़ता है. कुछ आदमियों में आंशिक कुछ में पूर्ण रूप से कुत्तों के गुण सॉरी अवगुण ट्रांसफर हो गए हैं. उदाहरण स्वरूप- शहर के मुख्य मार्ग के किसी भी गली के मुख्य मोड़ पर, आप को एक पोल (खम्भा) दिख जायेगा. पहले उस पोल पर कुत्तों का राज था वे वहीँ बड़े इत्मिनान से, अपनी एक टांग को 45 डिग्री पर उठाते हुए; मूत्र विसर्जन किया करते थे. किन्तु अब वह हर पोल आदमियों का हो कर रह गया है, क्योंकि कभी कोई पोल खाली मिलता ही नहीं. कोई ना कोई वहां अपनी बैचनी शांत कर रहा होता है. पोल के आस –पास का एरिया भी कैप्चर कर लिया गया है. उन लोगों द्वारा जो कुत्तों की अनुवांशिक गुण के शिकार हो गए हैं. बेचारे कुत्ते भी क्या करे वह इन्तजार में खड़ा रहता है कि मेरी बारी है वो सोचता होगा वो भी क्या दिन थे. उस ज़माने में हर कुत्ते का अपना एक पोल रिजर्व हुआ करता था. उस पोल पर सिर्फ एक ही कुत्ते का अधिकार हो सकता है. ऐसे नियम थे तब. अब तो कोई किसी की सुनता तक नहीं.  कि तपाक से दूसरा व्यक्ति आ धमकता है. वो उदास और बेबस हो कर वहां से चल पड़ते हैं. सामने दिवार पर एक फ़िल्मी पोस्टर चिपका था,जिसे निहारते ही  अचानक उसके चहरे पे मुस्कान तैरने लगी.
वो कुत्ता अपनी सामाजिक जिन्दगी से त्रस्त तो था ही पर मेरी समझ में ये बात नहीं आ रही थी. वो इतना खुश क्यों है. उसकी ख़ुशी का मुझे ज्ञान तब हुआ जब मैंने अपने मित्र के पास किसी काम से गया. वे कुत्तों के अनुसन्धान कार्यक्रम से जुड़े थे इसलिए कुत्तों के बारे में भी पूछ ताछ कर लिया. उस अनुसन्धान करने वालों का काम था कुत्तों के बारें में जानकारी इकट्ठा करना. और ये पता लगाना कि आदमी और कुत्तों में क्या समानता और क्या-क्या भेद है.
एक दिन मैं अख़बार पढ़ रहा था. मेरी नज़र एक छोटे से कॉलम के मोटे शीर्षक पर रुक गई. लिखा था- शहर में आवारा कुत्तों की संख्या में बढ़ोतरी. मैं कन्फ्यूज हो गया ये किनकी बात कर रहे हैं. उन जानवर रूपी कुत्तों की या आदमी के रंग रूप वाले.
साहब ! अब वो जमाना चला गया जब लोग विनम्रता के साथ एक दुसरे के साथ पेश आते है. उनमें संवेदनाएं थीं. उनमें एक दुसरे को सहानभूति और प्रोत्साहित करने की प्रकृति थी. अब तो ज्यादातर लोग ऐसे मिलेंगे जैसे किसी पागल कुत्ते ने काट लिया हो. वे बोलते नहीं भोंकते हैं. खबरिया चनेलों पर हो रहे विचार विमर्श या संसद इसके प्रत्यक्ष  उदाहरण हो सकते हैं.
हाँ तो शुरू मैंने कुत्ते पालने की अपनी रूचि के बारे में आपको बता रहा था. एक सुबह मोरनिंग वाक के लिए निकला. ठीक उसी वक्त वो मित्र (कुत्तों के विशेषज्ञ) मिल गए. मैंने उनसे हाल पूछते हुए कहा क्या सब ठीक है ना ?उन्होंने शब्द को रस्सी की तरह खीचतें हुए कहा- ठीई............क है. उनके चेहरे से खीज और झुंझलाहट साफ दिख रहा जिसे वे ढकने का प्रयास कर रहे थे.फिर मैंने अपने काम के बारे में पूछा.वे इतने जोर से मुझपर बिगड़ पड़े. जिससे मेरा सुबह तो ख़राब हुआ ही सारा दिन भी बेकार गया.
ऐसी परिस्थिति से आप का भी कभी ना कभी सामना हुआ होगा. आप सोच में होंगे कि आखिर मैंने तो कुछ गलत नहीं कहा फिर उसके गुस्सा होने की वजह? होता ये है कि कई ऐसे आदमी आपको मिल जाते जो अपने सिर पर इतना कचरा लिए घूमते हैं जिसका अंदाजा उन्हें खुद नहीं होता.वे किसी अन्य जगह का frustration या tension रूपी कचरा किसी दुसरे पर फेंकने की जुगाड़ में रहते हैं. जिसका ना आपको पता चल पता है की सामने वाला कचरा लिए घूम रहा है. ऐसे झुंझलाने वाले लोगों को भी मालूम नहीं चल पाता कि वे ऐसा रियेक्ट क्यों कर रहे हैं.
कभी कभी तो मेरे व्यवहार में भी गुस्सा के परत देखे जा सकते है. मैंने इस पर चिंतन कर पाया कि हम जब गुस्से में किसी से बात कर रहे होते हैं तो आप की उर्जा तो खपत होती ही है रिश्ते भी ख़राब हो जाते हैं. इस लिए मैं एक ट्रेंड कुत्ता खरीदने चल पड़ा ताकि वो सदा मेरे पास रहे और मुझे याद दिलाता रहे कि भौंकने का काम हम कुत्तों का है आप जैसे नेक आदमी का नहीं. कुत्ता पालने के कई फायदे हैं जो आदमी आप पर भौंके उनपर आप अपने कुत्ता को छोड़ दीजिए उनसे वार्तालाप करने. आप उनपर प्रतिक्रिया ना दे और ना कोई कमेंट, बिल्कुल इसी तरह जिस तरह इस रोचक लेख को पढ़ कर नहीं देने वाले हैं.
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एक सवाल आपके लिए छोड़ रहा हूँ.

पोल से बेदखल होकर भी वो कुत्ता खुश क्यों था?
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मंगलवार, 30 अगस्त 2016

खेल क्रांति और महिला जागृति का नया दौर

“रियो की रानियों को राष्ट्रपति से खेल रत्न” सचमुच ये बहुत गौरव का क्षण है. मैं समझता हूँ कि ये बहुत बड़ा संकेत है खेल क्रांति के आगाज का. रियो की रानियों ने बता दिया है, सिद्ध कर दिया है कि अब खेल आन्दोलन हो कर रहेगा कियोंकि खेल से जुडी हमारे देश और राज्य में जो भी परिस्थितियां और मानसिकता है उससे हमें आजाद होना होगा.पैसों और संसाधनों की कमी हम कतई नहीं झेल सकते और ना ही खेल से कोई समझौता कर सकते हैं. हमें कितना भी रोकना चाहोगे हम नहीं रुकेंगे.हम जी जान से देश के लिए खेलते रहेंगे और भारत में जो मेडलों का सुखा है, बाढ़ ला देंगे. कुछ ऐसे ही ओजपूर्ण प्रेरणादायी बातें उनके आत्मविश्वास और सफलता से झलकती है.
गत सोमवार को खेल दिवस के अवसर पर माननीय राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने राष्ट्रीय भवन में चार खिलाडीयों पी वी सिन्धु, साक्षी मलिक,दीपा करमाकर, जीतू राय को देश के सर्वोच्च पुरस्कार राजीव गाँधी खेलरत्न से सम्मानित किया.  इसके अलावा अर्जुन पुरस्कार,द्रोणाचार्य अवार्ड, राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार और मौलाना अबुल कलाम आजाद ट्रॉफी प्रदान की.
यहाँ गौर करने वाली बातें हैं कि चारों खिलाड़ी जिन्होंने अलग अलग खेल जैसे बैडमिंटन,कुस्ती,जिमनास्टिक,निशानेबाजी में पदक जीत कर हमारे देश का परचम लहराया है. अगर हम इस दशक को महिलाओं का है कहें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि इसकी जागरूकता तो उसी समय से लगातार बढ़ती जा रही थी जिस वक्त डॉ प्रतिभा पाटिल राष्ट्रपति बनी थीं. पंचायत चुनाव में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी,खासकर बिहार में छात्राओं को पढाई और खेल में प्रोत्साहन के लिए साइकिल और लैपटॉप वितरण किए गए. जिसके दूरगामी परिणाम को देखते हुए ऐसे कई काम किए गए.मेट्रिक की परीक्षा में छात्रों की अपेक्षा छात्राओं ने उम्मीद से ज्यादा अच्छा अंक प्राप्त किए.राज्य और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई क्षेत्रों में जैसे 18 जून 2016 को IAF प्रथम महिला फाइटर के पद पर अवनी, भावना और मोहना का नियुक्त होना. अगर फिल्मों की बात करें तो अब फ़िल्मकार महिला प्रधान फिल्म निर्माण करने में जोखिम उठाने से नहीं डरते. यही कारण है पिछले कुछ समय से कई फ़िल्में रिलीज़ हुई जो विशेष रूप से मुख्य पात्र के रूप में नायिका हैं. उन फिल्मों की लिस्ट में कुछ नाम इस प्रकार हैं- मेरिकोम, कांची, कहानी, बाजीराव मस्तानी,सुल्तान, दृश्यम,पिकू, NH10, तनु वेड्स मनु, मसान, नीरजा,एंग्री इंडियन गॉडेस और आने वाली फ़िल्में अकिरा और दंगल. ये सभी ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें महिलाओं के के किरदार प्रतिनिधित्व का जयघोष करते हैं. चेतन भगत की नई किताब जो आने वाली है वह भी महिला के सशक्तिकरण का नया चहेरा दिखने वाला होगा.
इस लेख के अंत में मैं उन तमाम खेल कोच को सलाम करता हूँ जिन्होंने तमाम कठिनाइयों को कुचलते हुए खिलाड़ियों की एक नई पौध तैयार कर रहे हैं जिसकी हल्की सी कोपलें दिखाई देने लगी है. मुझे अभी भी पुलेला गोपीचंद और पी.वी. सिन्धु का  इंटरव्यू याद है जो 8- 9 माह पहले अखबारों में छपा था.पढ़ कर आश्चर्य और गर्व का अनुभव हुआ था यह जान कर कि वे कितने परिश्रम करते हैं कैसे प्रैक्टिस करते हैं, और उस दौरान किन किन समस्याओं से गुजरना पड़ता है. उनकी मेहनत रंग लायी फिर भी अभी बहुत कुछ किया जाना बांकी है. और भी कई खेल हैं. जिसमें अधिक से अधिक खिलाड़ियों को विश्वस्तरीय प्रशिक्षण एवं सुविधाएँ दिए जाने की जरुरत है.

-   --- अभिषेक कुमार



सोमवार, 29 अगस्त 2016

फिल्मों की बातें-मोहेनजोदरो.



मोहेनजोदरो.इस फिल्म के बारें में उसी वक्त कहना चाह रहा था जब देखा था.release के एक दिन बाद ही. पर फुर्सत मिले तब तो. मुझे तो बहुत अच्छी लगी थी. आपको? बहुत दिनों के बाद कोई ऐसी फिल्म देखने को मिला जो एक अलग दुनिया में ले चले. कुछ ऐसी बातों से रूबरू करें ऐसी फिल्म बहुत कम होती है.इस फिल्म हर एक चीज जैसे- कलाकारों का चयन(हृतिक रोसन, पूजा हेगरे),उनकी अदाकारी, डांस और संवाद बहुत ही सुन्दर था.अगर पूजा हेगरे की जगह की फेमस अभिनेत्री को लिया जाता तो शायद उतना इफेक्टिव नहीं लगता जितना एक नए चेहरे की महत्ता लगती है. नायिका की जो गेटअप है कोउस्तुम है वो काफी ध्यान आकर्षित करता है.फिल्म के संगीत और गाने तो बेहद ही रूमानी है. इनके गीतों में एक तरफ उनके उस समय के शहर का गुणगान है, तो दूसरी तरफ सिन्धु नदी की पूजा प्रार्थना की गई है. और एक रोमांटिक गीत भी है जिसे शब्द(बोल) बड़े प्यारे हैं.

पास आके भी क्यों मौन है तू,

ये तो कह दे मेरी कौन है तू.
बोलते हैं नयन मौन हूँ मैं,
अपने नैनों से सुन कौन हूँ मैं.
लोकेशन और साज सज्जा पर काफी काम किया गया है. दरअसल इस फिल्म के निर्देशक आसुतोष गोवरीकर ने बहुत ही रिसर्च कर एपिक-एडवेंचर रोमांटिक फिल्म का रूप दिया है. ये बहुत बड़ी सफलता है जिसे नीरस dacumantary फिल्म जैसा नहीं होने दिया. पर कमाई में ये फिल्म कोई कीर्तिमान स्थापित नहीं कर पाई. पर मेरा ये मानना है कि सिर्फ पैसे से किसी की गुवात्ता मापना ठीक नहीं.  
ये बड़ी फिल्म है.इसका दायरा विशाल है. और इस फिल्म में ar रहमान ने जो संगीत दिया वो अद्भुत है. किसी भी फिल्म की रूह संगीत होती है बैकग्राउंड म्यूजिक होती है. हमारे डेली लाइफ में यही तो कमी रह जाती है की यहाँ कोई बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं होता. खैर,
इस फिल्म की कहानी की बात करें तो एक लाइन में ये एक साहसी युवा सरमन की कहानी है जो एक छोटे से गावं अमरी से मोहनजोदड़ो व्यापार करने जाता है. वहां वह लालची और अत्याचारी शासकों के कुकृत्यों से अवगत होता है, जहाँ वो क्रोधित हो जाता है और लौटने का निर्णय करता है पर वही कुछ वैसा ही होता है जो हर एक फिल्म में होता आया है और होता रहेगा, कहने का मतलब आप समझ ही गए होंगे सरमन को एक सुन्दर सी चानी नामक लड़की से प्यार हो जाता है. और वो इस पाने के लिए मोंजा (वहां का होने वाला शासक और चानी का होने वाला पति) से लड़ता है. उस वक्त कहानी और दिलचस्प मोड़ लेलेती है जब सरमन पता चलता है उसके पूर्वज
मोहनजोदड़ो के शासक थे तो ये लड़ाई और बड़ी हो जाती. पूरी जनता का सरमन प्रतिनिधि बन जाता है और वो इस अत्याचारी शासक से उन्हें मुक्ति दिलने का संकल्प लेता है. वही दूसरी ओर एक और प्राकृतिक आपदा का सन्देश मिल जाता है की जो बांध सिन्धु नदी पर सोने के लालच में बनाई गई है वह ध्वस्त होने वाला है.
फिर पूरा शहर खाली कराया गया, नाव का पुल बना कर सारी जनता की रक्षा हुई पर मोहेंन्जोदारो पूरा शहर सदा के लिए जमींदोज हो गया.इस प्रकार मोहें जोदारो सोशल स्ट्रक्चर और सिस्टम, जजमेंट  और रूल्स प्रथा और परंपरा, आस्था और अन्धविश्वाश, साहस और पराक्रम, प्रकृति और जलवायु के बारें में बात करती है. एक और बात जो मुझे निजी तौर पर आकर्षित करती जो स्वप्न और कल्पना की बातें है.बखूबी देखने को मिली.

अगर आपने देखा है तो बहुत अच्छा और नहीं देखा तो जरुर देखिए. और मेरी बातें आपको कैसी लगी जरुर बताएं. 

शनिवार, 27 अगस्त 2016

बाढ़ और सुखाड़ के बीच गुफ्तगू

“बाढ़ के साथ 166 प्रखंडों में सुखाड़” बड़े और मोटे अक्षरों में हिंदुस्तान दैनिक के फर्स्ट पेज पर छपे उक्त हेडिंग लाइन पढ़ कर ना जाने कितने सवाल मन मस्तिष्क में कोंधने लगे.तस्वीरों को देख कर काफी हैरानी हुई. आंकड़ो ने झकझोर कर रख दिया. सोचिए जरा जो इस विकट परिस्तिथियों का सामना कर रहे है उन पर क्या बीतती होगी.सबसे पहले मौजूदा हालात से उपजे कुछ सवाल – बाढ़ और सुखाड़ के लिए कौन जिम्मेवार है? कब निजात पायेगा बिहार ऐसे हालत से? बदतर हालत कब होंगे बेहतर? बाढ़ की विभीषिका और सुखाड़ की समस्या का क्या कोई ठोस समाधान संभव है? क्या ये एक तरह की लापरवाही है या हमारे पास कोई चारा नहीं है आपदाओं को झेलने के सिवा? आपदा प्रबंधन विभाग या उससे जुड़े विभाग के पास कोई योजना है जिससे जनता को राहत मिल सके? या फिर ये हालात सरकार के नाकामयाबी का संकेत है?  ऐसे सवाल किसी को भी हिलाने के, सोचने के लिए पर्याप्त है. आप की क्या राय है?

(आगे पढ़ने से पहले ये मान लें कि आप किसी चाय के ढाबे पर चाय का इंतजार कर रहे है और पास में बैठे एक ग्रुप में गुफ़्तगू चल रही. जिसे आप सहज रूप से सुन पा रहे हैं.)

“भाई! सब लोग पलायन करने के लिए विवश हैं.उनकी जान जोखिम में होने की वजह से वे डरे हुए है.जो कुछ उन्हें अपने बचाव के उपाय सूझ रहे हैं वे कर रहे हैं. अखबारों और सोशल साइट्स पर ऐसे तमाम तस्वीर मिल जायेंगे जो बाढ़- सुखा की विभीषिका को बयां कर रहे हैं. मुझे लगता है बिहार ऐसी विभिषिका झेलने के लिए अभिसप्त तो नहीं.”

“नहीं महाराज. कैसी बात करते हैं. आप द्वापरयुग में तो नहीं जी रहे हैं. दो दी पहले ही जन्माष्टमी मनायी उसी का प्रभाव है आप पर.”

“नहीं.नहीं. आप ही बताए कि ये कैसे हुआ अचानक ?. और सुनकर भी कितना अजीब लगता है. बिहार में बाढ़ भी  और सुखाड़ भी. ये तो वही बात हो गई रात भी है और सूरज भी उगा है. ये भगवान की ही तो लीला है.वे तो कुछ भी कर सकते हैं.”

“कम कम से भगवान पर तो दोष मत दीजिए. ये बाढ़ कि वजह तो पड़ोसी देश नेपाल और पडोशी राज्यों से आये पानी के कारण हुई और कुछ इलाकों में 18 फीसदी कम बारिश होने से ऐसे हालात हुए हैं.”

“ओह. तो ये बात है. मैं तो खामखाँ भगवान को दोष दे रहा था. अच्छा तो ये बताए कि क्या बाढ़ और सुखा की कहानी क्यों दुहराई जा रही है? इसमें किसका दोष है सरकार का या अखवार वालों का?”

“मुझे तो बिल्कुल भी कोई दोषी नज़र नहीं आता. क्युकि सरकार की घोषणा, अनुशंसा,रिपोर्ट,सर्वेक्षण,परिचर्चा,बैठक, प्रस्ताव,ज्ञापन, निर्देशन आदि इत्यादि तो कर ही रही है.हमारे अफसर जमीनी करवाई को छोड़ कर कागज़ी घोड़े दौड़ाने के अभ्यस्त तो हैं ही.अखवार वाले का तो कोई दोष नहीं,ये तो पढ़ने वाले के यादास्त का मामला है.वे जो पढ़ते हैं और शायद सोचते भी हैं कि ये तो पिछले साल वाली घटनाओं का ब्यौरा है सिर्फ डेट चेंज है.”

“आपने ठीक कहा. देखिए आपदा प्रबंधन की बैठक हुई है.साथ ही बिहार ने केंद्र सरकार से सहायता के लिए भी गुहार लगाई है.”

“हाँ. ठीक है पर एक बात समझ में नहीं आता कि हम जानते हैं बाढ़ और सुखाड़ की समस्या साल दर साल भयावह रूप धारण कर रही है. खास कर धान रोपाई के समय. कहीं फसल डूब जाती है तो कहीं सुख जाती है.अब तो जान पर भी आफत है. आखिर साल भर जनता के प्रतिनिधि mla और mp व प्रशासन क्या करती है?क्या उन्हें पता नहीं चलता या खबर लेने की कोशिश नहीं करते कि कौन सा पुल बांध कमजोर है? कहाँ का रेलखंड क्षतिग्रस्त है या होने वाला है.मौसम की भविष्यवाणी के लिए कोई जागरूक है भी की सब राम भरोसे?”

“दरअसल बात है कि हमारी आदत है कि जब  प्यास लगेगा तभी कुआँ खोदेंगे. और हाँ अब तो और आफत है खोदने से भी कहाँ मिलेगा एक तरफ ग्लोबल वार्मिग बढ़ रहा है तो दूसरी तरफ जल के लेयर्स घटते जा रहे हैं.”

(अब आपके सामने चाय प्रस्तुत है. चाय के मजे के साथ उनकी बातों पर गौर करना ना भूलें)

“भाई! जो हुआ सो हुआ. अब जो हो रहा है हमारा ध्यान उसपर होना चाहिए. हमें सोचना चाहिए कि किस प्रकार हम बाढ़ और सुखा पीड़ितों की मदद कर सकते है?सुखा से निपटने के लिए तो लम्बी अवधि के कार्यक्रम बनाने की जरुरत है. किन्तु बाढ़ के कारण जो समस्या पैदा हुई है उसे तत्काल समाधान करना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो जान माल को काफ़ी नुकसान होगा.”

“नुकसान! जरुर होगा और होकर रहेगा.ये होना ही चाहिए और जो हो रहा है वो पहले से सुनिश्चित है.”

“आप कैसी बात कर रहे हैं.आप को उन पीड़ितों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं.”

“हाँ.मुझे कोई हमदर्दी नहीं.जरा आप ही बताए कि आप कितने सहिष्णु हैं? आप कितने दयावान हैं ?”

“ये क्या.भाई! आप तो मुझसे लड़ाई करने लगे.”

“नहीं, नहीं, भाई साब! मैं आप से क्यों लडूंगा. मैं तो दरअसल ये कहना चाह रहा हूँ कि जब हम लोगों ने वृक्षों और जलवायु के प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाई तो प्रकृति को हमलोगों के प्रति कितनी हमदर्दी होगी.जब उसपर हमने अत्याचार किया है तो वह हमपर कहर बरसायेगी ही.कभी बाढ़ का रूप लेकर.कभी सुखा की विभीषिका बनकर.”

“हम्म्म्म. हमें जो है ना. समाज में एक नै क्रांति लानी होगी. जलवायु परिवर्तन के प्रति हम सभी लोगों को जागरूक होना होगा.”

“हाँ. हुई थी ना दो दिवसीय बैठक.भारतीय कृषि अनुसन्धान परिसद के संरक्षण में.”

(शायद आपकी चाय ख़त्म हो गई होगी और जाने को सोच रहे होगें पर बात तो पूरी सुन लीजिए)

“मत कीजिए चर्चा इस बारें में. चर्चा- परिचर्चा करते करते टीवी वालों ने दिमाग का दही कर दिया है. मैं पुछता हूँ कहाँ थे भाई अबतक. क्या कर रहे थे.कभी आप सबने जमीनी स्तर पर आकर देखा सुना कि वास्तव में क्या परेशानी है.बहुत आसान है ac हॉल में जो जी आये बोल दिया.हंशी मजाक और बेकार बहस पर जाया करना. बहुत आसान है. सिंचाई, बिज, उर्बरक आदि मामले में किसानों को क्या क्या समस्या झेलनी पड़ती है.इन बातो में कहाँ किसी को रूचि है?,उन्हें इंटरेस्ट तो अपनी झूठी प्रसंशा करने में होता है?. उन्हें अपने ऑफिस की राजनीति में ज्यादा मजा आता है.वो परेशान हैं कि उन्हें क्यों पदोन्नति चाहिए या फिर किसानों के समस्या को किस तरह हल किया जाये. खैर वो प्लाट पर जाने से तो शायद इसलिए भी डरते हैं कि गाँव जाने वाले जितने भी रास्ते है वहां रास्ते तय नहीं करने होते है बल्कि गड्ढे और खाई से गुजरना पड़ता है.जिसे वे झेलना नहीं चाहते.तो जाएँ भी तो कैसे?”
“मैं इस बात से सहमत हूँ. यहाँ कौन ऐसा आदमी होगा जो अपनी सलामती नहीं चाहता है.भला कौन जाये अपनी हड्डी पसली तोडवाने.इस बात पर आपको यकीन ना हो तो आप खुद आजमा सकते हैं.कुछ को छोड़ कर बिहार के किसी भी जिला के 40-50 km दूर गाँव चले जाइए.शरीर के सारे पुर्जे खुल जायेंगे.  इतना कुछ झेल ने बाबजुद ग्रामीण इलाकों में इन दिनों कहर टूट पड़ा है.शायद रोड ठीक रहता तो राहत सामग्री पहुँचाने में मदद मिलती. जिले के कई जगह तेज हवा और वर्षा की वजह से पेड़ के उखड़ने व झोपड़ियों के उजड़ने की घटनाओं से सब हलकान महसूस कर रहे है.आवागमन तो बाधित है ही, बिजली आपूर्ति भी प्रभावित हो गई है.”
“वैसे कुछ संगठन और ग्रुप के लोग बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए आगे आये हैं इतने मात्र से काम नहीं चलेगा. आपको, हमको और सबको आगे आना होगा और सब मिलकर जो भी मौजूदा व संभावित समस्याएं उनके समाधान के लिए हाथ बंटाना पड़ेगा. कुछ नहीं तो आत्म संतुष्टि के लिए जरुर. साथ ही साथ मदर टेरेसा (जन्म दिन August 26, 1910) को याद करते हुए.”



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रविवार, 10 अप्रैल 2016

बिहार में शराब बन्दी पर चर्चा

दो हफ्ते से शराब बन्दी को लेकर अखबार,टीवीचैनल और सोशल साईट पर जोरो से चर्चा हो रही है. गल्ली-मुहल्ला ,चौक-चौराहा, सड़क,संसद ,गाँव,शहर ,बस्ती ,कोई ऐसी जगह नहीं जहाँ शराब बन्दी की बातें नहीं हो रही है. जितने लोग उतनी तरह की बातें और हो भी क्यों ना...! कुछ बातें तो होनी ही थीं और फिर होती ही रहती है.यहाँ तो गप्पे हो रही है .
   कई तरह की बातें,कहीं गरम कहीं नरम, तो कोई पॉजिटिव तो कोई नकारात्मक तर्क दिए जा रहा हैं.कोई शराब बन्दी से खुश है, तो कोई बौखलाए हुए हैं. कोई सरकार की तारीफ में मगन है, तो कोई सरकार के खिलाफ नारेबाजी कर रहा है. जो भी हो, उन्हें दो भागो में बांट सकते हैं. शराब बन्दी के पहले की बाते और शराब बन्दी का कानून लागू होने के बाद की बातें. इन तमाम तरह की खबरों में बातें कम शिकायतें और शरारतें ज्यादा उभर कर सामने आ रहे हैं. मैं शिकायतओं और शरारतों के मुगलातों से हटकर शराब बन्दी होने से लोगो पर क्या असर हुआ है. उन पर बात करना चाहता हूँ क्योंकि ये ऐसा असर है, जिसकी कल्पनाएँ शायद सरकार चलाने वालों ने भी नहीं सोची होगी.
      हर दिन सुनने को मिल रहा है,फलां जगह शराब पीने से दो युवक की मौत हो गई. शराब की कमी कारण कई शराबियों के हाथ-पैर सुन्न हो गए हैं. ना जाने कितने शराब-प्रेमियों को पागलखानों में भर्ती करवाना पड़ रहा है. हद तो तब हो गई जब मैंने ये सुना की शराब के कुछ शौक़ीन इस नशे के को खोज रहे हैं. जो इनकी नशे को पूरा करे .इस खोज में वो कभी फिनायल ,कभी साबुन तो कभी पोलिश क्रीम को अपना निशाना बनाया,....!पर इन्हें जब संतुष्टि नहीं मिली तो बाबा रामदेव प्रोडक्ट्स स्टोर पर कोई नशीली हर्बल शैम्पू की डिमांड कर डाला. शायद वे अब भी उसी पूरक के अनुसंधान में लगे होंगे. शायद अपने सुना होगा की “ना मामू से काना मामू अच्छा” . इसी सोच के तहत ताड़ी बेचने वालो के पास शराबीयों की संख्या बढ़ गई है. भूल बस मीडिया वाले भी वहाँ पहुँच गए और अगले दिन ही ताड़ी वालों के नाम वायरल हो गया.परिणाम स्वरुप ताड़ी स्टॉक पर भी ताला लटक गया.
           अब जरा आइए सोशल साईट पर,पहले वातसप्प पर चलते है....,यहाँ कई तरह के आपको विडियो ,चुटकुले मिल जांयेंगे .जिससे शराब बन्दी किस तरह से सबके सिर पर हावी है, पता चल जायेगा. कई ऐसे फोटो भी वायरल है,जंहा रोड-रोलर से शराब से भरी बोतल को नष्ट किया जा रहे हैं. शराब की बोतल की अर्थी निकली जा रही है,पर यह जानकर बड़ी हैरानी हुई कि शराब बेचने वाले whatsapp के जरिये शराब ज्यादा कीमत पर होम डिलीवरी की सेवा उपलब्ध करने के तैयारी में लगे हुए हैं. मनुष्य की प्रकृति रही है कि वह नकारात्मक चीजों की ओर जल्दी खिंचा चला जाता है.जिस चीजों की उसे मनाही के आदेश या सलाह दिए जाए वह उसी चीजों को करने की जिद करता है. अब इस जड़ में जीत किसकी होती है..?ये देखने वाली बात है. शराबीयों की या प्रशासन की! वैसे पिछले दिनों ही प्रशासन पर ऊँगली उठाई गए थे की प्रशासन के लोग भी शराब पीने के आदी होते है.तो दुसरे दिन ही पूरे प्रशासन और पुलिस महकमे में शराब ना पीने का संकल्प लेकर अपनी स्वच्छ निष्ठा का प्रमाण प्रस्तुत किया. किन्तु डर तो ये अब भी है की जैसे पिज़्ज़ा बॉय होम डिलीवरी करने में एक्सपर्ट होते हैं  ,कहीं उसी तरह शराब डिलीवरी करने वाले भी ना बन जाये क्योंकि इन सब लडकों को पता है कि ट्रैफिक रूल ब्रेक करने की समस्या का समाधान 10 से100 रुपया में हो जाता है. वैसे ही शराब ढ़ोने के लिए ट्रैफिक पुलिस के जेब में छोटा बोतल डाल दिया तो समझो सारी मुश्किलों से छुटकारा जा.फेसबुक ट्विटर पर भी बहुत सारे प्रशंसा के स्वर गूंज रहे हैं. शराब बन्दी को तो कोई अनुकरणीय बता रहा है. कोई आम जनता को सलाम कर रहा है तो कोई महिलाओं के जोर-शोर से इस आन्दोलन में जुटने के लिए आभार व्यक्त कर रहा है.
        पिछले शाम को मैं मार्केट में कुछ सामान खरीदने के लिए मोलभाव कर रहा था ,कि एक मित्र से मुलाकात हो गया, उन्होंने मुझे छेड़ते हुए कहा कि सब तुम ही खरीद लोगे कि मेरे लिए भी खुछ रहने दोगे.मैं तुरंत ही उनके ओर मुखातिब हो कर हँसते हुए बोला की महाराज...!जेब में पैसे रहेंगे तब तो खरीदूंगा ना, मार्केट तो मोल-भाव के शौक को पूरा करने चला आता हूँ. फिर दो तीन लोग और मिल गए और शुरू हो गए शराब बन्दी को लेकर खींचातानी .उन्हीं में से एक भाई साहब, वेश-भूषा से पढ़े-लिखे और शक्ल से होशियार भी दिख रहे थे. उनका कहना था की जो आप लोग शराब बन्दी को लेकर इतना शोर मचा रहे हैं,ये कुछ नहीं है. सरकार जनता के आँखों में धूल झोकने का काम कर रही है. ऐसे कई तरह के कानून आये और कई गए, कोई पालन होता है क्या? “चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात” बस दो दिन रुक और जायिए. सब दुकान खुल जाएँगे. तब सरकार के नाम का भजन जपते रहिएगा.बीच में किसी ने उन्हें टोकते हुए कहा, क्या सरकार को शराब से फायदा नहीं पहुँचता था? फिर दुसरे प्रतिद्वंदी ने मोर्चा सम्हाला. महाराज...,शराब ही क्यों, जितनी भी नशीली चीज़ हैं, तम्बाकू, खैनी ,गुटखा सब पर जो टैक्स आता है, उसका आप अनुमान भी नहीं लगा सकते है, और बात करते हैं.....! सरकार सिर्फ ढोंग रचा रही है,इस ढोंग का पर्दाफाश होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा. इधर ही देख लीजिए ऐलान किया गया था, कि  शराब पर पूरी तरह से रोक लगा दिया गया है, इसका कानून भी पास हो गया है,लेकिन दूसरे ही दिन शराब विक्रताओ की संविदा पर बहाली की नोटिस निकल आया. इतनी बातें सुनते ही दुसरे लोग भी फार्म में आ गए और शुरू हो गए. देखिए...! देखिए जरा कोर्ट कहचरी में जाकर क्या हालत है. सरकार उस तरफ ध्यान तक नहीं देंगी, जहाँ हजारो-लाखो केस बीस सालों से अधर में लटके हैं. सरकार अधूरे पुल-पुलिया,सड़क,रेल जैसे महत्वपूर्ण काम पर ध्यान नहीं देंगी. हजारो-हज़ार मजदूर का पलायन हो रहा है. दुसरे राज्य जाने की विवसता सरकार के समझ से परे है. कोई स्कूल, कॉलेज की स्थिति ठीक नहीं है, सारी शिक्षा व्यवस्था चौपट है? सरकार को तो बस इस तरह के शराब बन्दी से मिल रही प्रशंसा से फूली नहीं शमां रही है. केंद्र सरकार के आरोप प्रत्यारोप से लगी अपनी मुस्कराते हुऐ तस्वीरों को अखबारों में देखकर मगन हो रहे है.इस आत्ममुग्धता से किसी भी सरकार को बचकर रहना चाहिए! तीसरे भाई साहब से भी नहीं रहा गया. वे भी अपनी लम्बे-चौरे,कद-काठी और एक्स्ट्रा बजन वाले शरीर को लिए हांफते हुए स्वर में बड़ी मजबूत किन्तु विरोध पूर्ण बातें कहीं. उनका कहना था, ये चौक देख रहे है ना, पहले यहाँ देर रात तक महफिल लगी रहती थी. लोगों का यंहा आना-जाना लगा रहता था.  किन्तु अब 6-7 बजते ही सारा बाज़ार वीरान-सा लगने लगता है. पहले मार्केट में चहल-पहल बनी रहती थी. बाज़ार में ऐसा लगता है,की मंदी छा गई है.मीट-मछली की दुकान हो या होटल सब मजे में थे. बिक्री सीधे डाउन हो गई. झाल-मुढ़ी ,कचहरी-छोले वाले से पूछो, तो कहेगा की शराब बन्दी ने वाट लगा दी है, भाई मेरे ....!अब बिसलेरी या केनले जैसी ब्रांडेड वाटर की खपत काम हो गई है. भाई शराब के साथ चखना- पानी चाहिए की नहीं...! हम तो कहते है की जिसको पीना है वो पिए जिसको नहीं पीना है वो नहीं पिए इसमें कम से कम सरकार को तो नहीं आना चाहिए था.....!
   इतने में माहौल इतना गरम हो चूका था की मैंने टॉपिक चेंज करने की चेष्टा की किन्तु असफल रहा. मैंने भीषण गरमी के इस मौसम में कहा, बिजली की कटौती कब तक जरी रहेगी. दूसरे भाई ने चुटकी लेते हुए कहा जब तक बिहार में बिजली की चोरी जारी रहेगी .पर वो भाई साहब शराब बन्दी को ही तुल दिए जा रहे थे.रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे.
    एक मिनट भाई साहब! मैंने अपनी जेब स्मार्ट-फ़ोन निकलते हुए हेलो कहा. उन्होंने कहा, कॉल है! बीबी का होगा!(हँसते हुए).चलता हूँ भाई मिलते है अगले दिन कहकर मैं वहाँ से खिसक गया. पर जैसे ही फ़ोन का स्क्रीन ऑन किया तो मुस्कराए बिना ना रह सका. वाटसप पर जो शराब बन्दी का एक मेसेज शो कर रहा था.

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C-7a: Pedagogy of social science [ B.Ed First Year ]

1. माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने के लिए आपके द्वारा चुने गए विषय का क्षेत्र क्या है ? उदाहरण सहित व्याख्या करें। माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने के लिए हम...