दृष्टिकोण

दृष्टिकोण यानी नज़रिया. इसका दायरा बहुत बड़ा है. ये समझने के लिए, जितनी मुश्किल है उतना ही जरुरी भी. इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा अनुसन्धान किये जाने की जरुरत है. नजरिया यानि दृष्टी कोण. जितनी नज़र उतने नजरिये. जितने ज्यादा शब्द उतनी ही मात्रा में दृष्टिकोण. जिस प्रकार एक पत्थर में जितने कण हो सकते हैं ठीक वैसे ही उतने ही विचार, उतने ही दृष्टीकोण जो किसी भी वस्तु या विषय पर परिलक्षित होते हैं. शायद एक अलग नज़रिए से दुनिया को, जीवन के अनेक पहलुओं का अवलोकन कर उसकी व्याख्या करना दार्शनिकता कहलाती है.
हम अपने दैनिक जीवन में कई तरह बातें सोचते हैं और उसे पूरा करने की कोशीश करते हैं. हमारे हाथ कभी सफलता, तो कभी असफलता लगती है. इन सफलताओं और असफलताओं या किसी भी खेल का जीत या हार पर हमारा दृष्टीकोण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. हमारी मानसिकता ही हमारे जीवन के विभिन्न परिणामों के लिए जिम्मेवार होती है. हमारी जो वर्तमान सोच है या जिस तरह से सोचने का तरीका है, ये सारी चीजें एक दिन में नहीं बदली जा सकती है. हमारे दृष्टीकोण को मूर्तरूप लेने में काफी समय लग जाता है या यूँ कहें कि समय के साथ-साथ हमारी सोच भी बदलती जाती है. हमारी सोच, हमारे दृष्टी कोण का ही परिणाम है.
हम किस क्षेत्र, किस धर्म, किस भाषा से ताल्लुक रखते है?, हमें बचपन से आज तक किस तरह के वातावरण में पढने लिखने का मौका मिला?, हम किसी सदी में पैदा हुए ? उसी सदी में कौन- कौन से विश्व्यापी घटनाएँ हुई? उस समय में तमाम क्षेत्र के नेता के स्वयं के दृष्टी कोण और फैसलों से सामाजिक दृष्टि कोण प्रभावित होती है. सामजिक दृष्टिकोण को बदलने या प्रभवित करने में मिडिया की भी महत्व पूर्ण जिम्मेवारी होती हैं.
कुछ चीजें हमें बहुत पसंद होती हैं और कुछ चीजें बिलकुल ही नापसंद. ये पसंद और ना पसंद हमारी मनोवृति की सूचक होती है. जैसे हमारी मनोवृति होती है वैसा ही हमारा स्वाभाव और वर्ताव होता है. चूँकि हर मन की अपनी मति और गति होती है. ऐसा माना जाता रहा है मानव मन बड़ा चंचल होता है. इसे स्थिर करना बहुत ही मुश्किल काम है. जैसे कि आंधी में दीपक को बुझने से रोकना. खैर ये तो साधू संन्यासी का काम है कि अपने मन को वस में रखना. एक आम इन्सान इस विलासी दुनिया से कैसे बच सकता है.आपने भी धर्मात्माओं को कहते सुना होगा मन को संतुलित और संयमित करने के अनोकों फायदे हैं और अगर आप अपने अंतर मन से दोस्ती कर लेते हैं तो आपके अन्दर की ज्योति जलते देर ना लगेगी. दुःख, सुख, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान क्रोध आदि तामाम तरह की भावनायें हमारे में समय और परिस्थति के अनुसार घूमते रहते हैं. हम उन्हें आजीवन झेलते, सहते और महसूस करते रहते हैं. हम कभी अपने मन के प्रत्यक्षदर्शी होते हैं तो कभी मन और हमारा भेद मिट सा जाता है और जब मिटता है तो उस प्रक्रिया को उस वक्त महसूस नहीं कर पाते. जब वक्त बदल जाता है तब हमें ध्यान आता है कि हम किस स्थिति में और हम क्या सोच रहे हैं. इस सोच के फायदे नुकसान क्या है? इन तमाम घटनाओं को देखते हुए हम पातें हैं कि हमारा मन अगर दर्पण है तो हमारा दृष्टीकोण हमारा नजरिया हमारी सोच उसका प्रतिबिम्ब. हालाँकि हम 100% नहीं कह सकते कि हमारी सोच पर सिर्फ हमारे मन का ही प्रभाव है हमारे नजरिया पर एक दृष्टी से देखा जाये तो दिमाग की भूमिका अधिक है हमारा दिमाग ही हमें सोचने को मजबूर करता है सोच को व्यवस्थित करता है विचार को उत्पादित पोषित संचारित करता है. ये चाहता है पर वह ठीक तरीके से काम नहीं कर पाता. इसका मूल कारण है कि हम जो परिणाम चाहते है, उसके लिए हम अपने दिमाग को ट्रेंड (प्रशिक्षित) नहीं कर पायें हैं. और जहाँ तक हम अभी सोचते हैं उतने तक ही हम अपने दिमाग को डेवलप कर पायें हैं. अपने दिमाग को प्रशिक्षित करना बड़ा कठिन काम है.किन्तु ऐसा नहीं है दिमाग तभी प्रशिक्षित होगा जब हम करना चाहेंगे. यह वातावरण और घर परिवार यहाँ तक कि गर्भ से ही प्रशिक्षित होता चला जाता है. यही कारण है कि कुछ बच्चे भूत का नाम सुनकर डरते हैं तो वही कुछ बच्चे हँसते हैं. ऐसे फर्क का एक मात्र कारण है बचपन में उसे माता- पिता द्वारा दी गई सुचना या उनके द्वारा किया कहा गया बर्ताव है. मान लिया जाय कि हमने शाहरुख़ खान की फिल्म ‘ॐ शांति ॐ’, ‘मैं हूँ ना’ या कोई भी देखी. उस फिल्म को देखने के बाद फिल्म के पोस्टर के प्रति जो नजरिया बना था, उस फिल्म को देखने के पहले वैसा नहीं था. यानि सूचनाओं से हमारी सोच बदलती है सूचनाओं से हमारी धारणा परिपक्व होती है यह अलग बात है कि वो सूचना सच्ची हो अथवा झूठी. पर इतना तो निच्शित है कि झूठ हो या सच तमाम तरह की बातों से हम कहीं ना कहीं प्रभावित, प्रेरित, कुंठित या क्षुब्ध आदि होत्र हैं. ऐसे नजरिये की स्थिति में समय का योगदान भी कम आँका नहीं जा सकता है. अगर समय पर सूचना नहीं मिली तो हमारी सोच अलग होगी अगर समय से पहले ज्ञान व जानकारी हमें प्राप्त हो जाती है तो समस्याओं से मुकाबला करने में हमें ज्यादा परेशानी नहीं होती है.
तो सवाल उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए ? इस तरह उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए? इस तरह के नज़रिये का स्वागत किया जाना चाहिए पर जहाँ सफलता की बात हो तो सकारात्मक नजरिया अपनाना चाहिए. कभी कभी हम देखते हैं कि कुछ तरह के दृष्टी कोण हमने लाभ कम हानि ज्यादा पहुंचाते हैं. ये लाभ हानि का सही आकलन हमें तब मिलता जब हम निश्पक्ष होकर देखते हैं और लाभ हानि को हम उसी रूप में सहते हैं जिस रूप में अंत में अपना नजरिया बनता है उस वस्तु या विचार के प्रति. यदि तमाम रूकावट झंझावातों से हमारे नजरिये बनते बदलते रहते हैं. अंत में यह प्रक्रिया कुछ धीमी हो जाती है कभी यह प्रक्रिया रुक जाती है और जब रुक जाती या जब परिपक्व हूँ जाती है वह एक व्यक्तिव और विचारधारा के नाम से जानी जाती है तो वह एक व्यक्तित्व और विचार धारा के नाम से जानी जाने लगती है. ये नजरिया ही है जो हममें उत्सुकता, कौतूहलता, उत्साह आदि ना जाने कितने तरह की भावनायें हम में भरता है. इस नजरिया से ही हम अपनी बातों को भावनाओं को प्रकट करते हैं. हमारी जैसी सोच होती है वैसा ही हमारा लक्ष्य होता है उन लक्ष्य को बना कर ये नजरिया ही कभी हमें प्रेरित तो कभी पराजित करता है कभी खोखले होने का भंडाफोड़ करता है तो कभी गुणों की प्रशंसा करता है. हम अपने ही नज़रिए से दुःख से कभी ज्यादा दुखी कभी कम दुखी होते दुःख का कारण तो वैसे का वैसा ही पर समय के साथ हमारा नजरिया बदलता जाता है फिर हम उसे विचार को उस भावना को दूसरे ढंग से देखने लगते हैं मान लिया जाय. किसी अपने प्रियजन की मृत्यु या जन्म होता है तब उस वक्त शोकाकुल या प्रफुल्लित हो जाते पर जैसे ही समय बदलता वैसे ही हमारी सोच भी बदल जाती है. हम एक नज़रिये से नकार देते हैं कि उनकी उमर हो चली थी जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सकता है कि उनकी उम्र हो चली थी, जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सका है? आदि तरह की विचार को अपने नज़रिये पर थोप कर उस दुख से कभी निजात पाने की कोशिश करते हैं,भूलने की चेष्टा करते हैं. बातें जो भी हों पर जिन्दादिली से अपने नज़रिये को दुरुस्त रखने के लिए नजरिया को नापने तौलने की जरुरत तो रहेगी ही.
- अभिषेक कुमार
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