सोमवार, 5 सितंबर 2016

अम्बेदकर चौंक
  (ऐसी तस्वीर जो कभी नहीं बदलने वाली)

यूँ तो आपको सभी जिले के शहर में अम्बेदकर चौक मिल जायेगें. अगर अम्बेदकर चौक नहीं होगा तो कचहरी (व्यवहार न्यायालय) चौक तो आपने जरुर देखा होगा. वही कहीं आसपास डॉ. भीम राव अम्बेदकर (संविधान निर्माता) की प्रतिमा मिल जाएगी.ये प्रतिमा मिलना और होना दोनों जरुरी है क्योंकि हम आम नागरिक को, खास लोगों द्वारा बताए गए, महान बातों को भूलने की बीमारी होती है. डॉ. भीम राव अम्बेदकर बाएँ हाथ में संविधान लिए हुए और दायें हाथ से लोकतंत्र के मंदिर (संसद भवन ) की ओर इशारा कर रहे हैं. उनके बढ़ते कदम स्वर्णिम भविष्य की ओर अग्रसर हैं. वे एक महा स्वप्नदर्शी और सच्चे देशभक्त थे जिन्होंने देश को एक सूत्र में पिरोने का सतत संघर्ष करते रहे. वे चाहते थे कि सबको समान मौके दिए जाये और सभी लोगों को सामान अधिकार प्राप्त हो. वे चाहते थे कि सब लोग अपने सामर्थ्य और शक्ति अनुसार संघर्ष करें और देश के विकास में अपना सहयोग दें. ये बातें मुझे स्कूली दिनों में बताई गई थी. उस वक्त मैं सोचा करता था कि अगर सबलोग अम्बेदकर जी के बताए मार्ग पर चलेंगे तो सचमुच देश की तश्वीर बदल जाएगी.

शहर की एक सड़क है जो ट्रेफिक चौंक से अम्बेदकर चौंक होते हुए कचहरी चौंक तक जाती है. ये सड़क वहीँ ख़त्म नहीं होती.किन्तु हम आपको ज्यादा दूर नहीं ले जायेंगे. सड़क के बीचों बीच लम्बी सी दिवाइडर है जो पहले छोटी हुआ करती थी किन्तु जैसे जैसे समय बदलते गए वैसे वैसे दिवाइडर की ऊंचाई भी बढती गई.पता नहीं ये दिवाइडर और कितनी ऊँची होगी. गौर करने वाली बात ये है कि दिवाइडर सिर्फ सड़क को दिवाइडर नहीं करती. ये उन सोसाइटी को भी अलग अलग करती है जो सड़क के दोनों तरफ फैले हुए हैं. एक तरफ स्वर्ण आभूषण,महँगे ब्रांडेड जूते चप्पल की दुकानें और कई बड़े मॉल भी हैं. 

वहीँ सड़क के दूसरी तरफ चार पांच रिक्शा वाला अपने ग्राहकों के इन्तेजार में खड़ा है. आने- जाने वाले राहगीरों को वो तो बड़ी मासूमियत से निहार रहा है किन्तु गरीबी, भूख और धूप ने उसका चहेरा निर्दयी सा बना दिया है. जो की हर किसी को वो घूरता हुआ नज़र आता है. आखिर कौन समझे कि वो भी एक इन्सान है. उसके पास भी दिल है.मैंने कई दफा देखा है मोटी सी महिलाएं या पुरुष रास्ते ऊँचे होने पर भी रिक्शे से नहीं उतरते उलटे रिक्शे वाले को भला बुरा ही सुनाते. आगे बढ़ने पर लिट्टी चोखा वाला दो-चार लिट्टी बनाकर उसपर पंखे झेल रहा है, कहीं उस पर मक्खी ना बैठ जाये. आसपास गन्दगी का ढेर पर कई ठेले हैं. कोई पूरी तरह टूटी हुई, तो कोई खड़े रहने का प्रयास करते हुए, हालाँकि उसके जो पहिए है पूरी तरह नाकाम है. कई तो खुटों से बांध दिए गए हैं.उन ठेलों पर कई तरह की हरी सब्जियां पंक्ति बद्ध सजी हुई है.ऐसा लगता है कुछ सब्जियां ग्राहक के स्वागत गान के लिए खड़ी हैं. और जिन टोकरियों में सब्जियाँ बिखरी पड़ी हैं ऐसा लगता है मानों वे आपस में लड़ रही हैं. और कह रही हैं मुझे ले लो मुझे ले लो. इन सब्जियों को बेचने वाले वो लोग हैं जिन्हें अपना आवास नहीं है वो ठेला ही उनका एक मात्र ठिकाना है आशियाना है. जमीन पर बोरा बिछाए पूरा परिवार सब्जियां बेचने में जुटा है. बगल में ही एक गरीब गर्भवती स्त्री खुले कड़ी धूप में बैठी प्याज और लहसुन बेच रही है. वही छोटा सा अधनंगा 4 या 5 साल का लड़का, शायद उसी स्त्री का पुत्र होगा; जो बार बार ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने का असफल प्रयास कर रहा था. उसकी आँखों में एक डर है जो कह रही है प्लीज प्याज ले ना. नहीं तो मुझे भूखा सोना पड़ेगा. एक ग्राहक आया भी तो उस महिला से उलझ पड़ा कहने लगा कम क्यों तौल रही है? तुम लोग कैसी है रे एक प्याज चढ़ने नहीं देती. हाफ पैंट पहने, बाइक पर सवार एक गोरे ने खाली थैला बढ़ाया.थैला भर कर वो प्याज बेचने वाला जिससे थैला बड़ी मुश्किल से उठ रहा था.वो गोरा व्यक्ति पैसे उस बच्चे को सौ का नोट दिया और कहा चल जल्दी से छुट्टा ला. 

आप सोच रहे होंगे मैं वहां क्या कर रहा था. श्री मान ! वहाँ से कुछ ही दुरी पर एक चाय की दुकान है. बढ़िया चाय बनता है. आगे तो आप समझ ही गए होंगे मैं कड़ी धूप में वहां चाय तो नहीं पी रहा होउगा. मेरे हाथों में मेंगो फ्रूटी ही होगा. खैर, मोल भाव करने वाले वो लोग हैं जो रेस्टोरेंट में 500 रु एक वेटर को देने में नहीं हिचकते.चलिए उस प्याज वाली के बगल में एक बूढी औरत बोरे और थैले से भुट्टा निकाल रही है. शाम होते ही उसका गरमा गरम भुट्टा बिकने के लिए तैयार हो जायेगा, किन्तु भुट्टा पकाने के पहले सारा इंतजाम करना पड़ेगा ना. सो वो चूल्हे में कोयला डाल रही है साथ ही दमघोटू धुंए से जूझ भी रही है.सोचता हूँ क्या जरुरत आ पड़ी इस बूढी को भुट्टा बेचने की. क्या इसका बेटा इन्हें छोड़ अपनी पत्नी के साथ कहीं चला गया है या फिर इसे घर से निकाल दिया गया है.

दुसरे दिन की बात है. मॉल के ठीक सामने. रोड के दूसरी तरफ, भुट्टे वाली सब्जी वालों के कतार में ही. मैं अपने एक मित्र के आग्रह पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ठीक वहीँ पर एक मोची बैठता है.जूते चप्पल रिपेयरिंग करता है.मैंने देखा कई लड़कियां जो पेंसिल हिल वाली सेंडिल में काँटी ठोकने के बाद उस मोची को इसलिए भला बुरा कह रही थी कि उसने 10 रु ज्यादा मांग लिए. मैं पूछता हूँ क्यों. आखिर क्यों हम लोग ऐसी आदत के शिकार होते जा रहे है कि सिर्फ और सिर्फ अपने ही बारें में सोचते हैं. अपने थोड़े से लाभ के लिए दुसरे से लड़ते रहेंगे. जरा सा कुछ हुआ नहीं कि बेवजह तमाशा बनाना इस दौर का शगल हो गया है. तुनक मिजाजी मानसिकता जिसे मेंटल वार्मिंग नाम दिया जा सकता है, हमारे ऊपर हावी होता जा रहा है.

वो मोची वाला शायद सही कह रहा था ac ऑफिस में बैठने वाले लोग कब समझेंगे कि सड़क के किनारे धुल और धूप फंखाते हुए काम करने की क्या कीमत होती है. 



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