मंगलवार, 27 सितंबर 2016

बेगुसराय के बिल्लू बार्बर



बेगुसराय के बिल्लू बार्बर


सैलून, जहाँ कैंची और म्यूजिक दोनों साथ साथ एक ही लय में चलते हैं. जहाँ नए - नए आशिक और प्यार में धोखा खाए मजनुओं की मजलिश लगती है. जहाँ कुछ राजनितिक बहसें भी उस्तुरों की भांति कभी कभी लोगों को नुकसान पहुंचाती है. उस मजलिश के अध्यक्ष और कोई नहीं, हाथों और जुबान दोनों से कैंची चलाने वाले गुमनाम शख्स सैलून मास्टर होते हैं. यहाँ हर तरह केश की सुनवाई की जाती है और मुक्कमल हल भी आपको मिल सकता है. हेयर डिज़ाइन करवाना हो या सिरदर्द कम करना आप सैलून की तरफ रुख कर सकते हैं.

जाने से पहले पेश है बातचीत के कुछ अंश...



(सैलून में इंट्री लेते हुए)

मैं- “क्या हाल है? फुर्सत में हैं ?”

बिल्लू - “बिलकुल फुर्सत में हैं. अभी तक तो ठीक ही आप सबके कृपा से.....”

यहाँ गौर करने वाली बात है कि सन्डे को सारा सैलून व्यस्त हो जाता है. उनके कहने का मतलब - बीजी इज इक्वल टू फुरसत.

शीशे के सामने, फिटकरी के बगल में रखे Nokia 1st gen का वो मोबाइल फोन घरघराने - थरथराने (vibretion
) लगता है.

बिल्लू फोन उठाते ही कहते हैं- “हेल्लो”, हाँ कुछ सुनने के बाद हाँ जी. हाँ बिलकुल फ्री हैं आइए. हाँ... हाँ.....

सब हो जायेगा. आइए तो......; हाँ तो कितनी देर में आ रहे हैं? क्या. एक घंटे में. ठीक .ठीक है. फोन पुनः यथा स्थान रख दिया जाता है, बाल के छोटे-छोटे टुकड़ों से सने हाथों द्वारा.



मैं- “ये कब का फोन है? नया क्यों नहीं लेते?”

बिल्लू- “महाराज ! हम गरीब लोग. आपके ऐसा एंड्राइड कहाँ से आएगा.”

मैं- “सैलून इतना चमक रहा है तो फिर एक चमकने वाला फोन रखिए. इतना तो सस्ता- सस्ता मोबाइल मार्केट में मिल रहा है.”

बिल्लू- “जी आप सही कह रहे हैं. मुझे इस मोबाइल से प्यार है. ये मेरे साथ तभी से है जब मैंने इस सैलून की शुरुआत की थी.”

मैं- “क्या बात है. बहुत बढ़िया. क्या आप काम से कभी उबते नहीं हैं?”

बिल्लू- “नहीं, बिल्कुल नहीं उबता. हाँ जब बैठा रहता हूँ तो उब जाता हूँ.”

मैं- “आप कितने पढ़े- लिखे हैं? क्या फेसबुक यूज़ करते हैं?”

बिल्लू- “मेरे पास आपके तरह मोबाइल कहाँ है जो फेसबुक यूज़ करेंगे. एक साल पहले एक लड़का बना दिया था मेरा account पर नहीं पता उसका passward.”

मैं- “आप पढाई कितने तक किये है?”

बिल्लू – “सरकारी स्कूल . पांचवी पास फिर मन नहीं लगा. कलम चलाने में सो कैंची पकड़ लिए.”

मैं- “तो अखवार मंगाते क्यों हैं?”

बिल्लू- “थोड़ा बहुत पढ़ लेता हूँ. हीरो हिरोहीन की फोटो देख लिया हो गया.”

मैं- “आप तो बाल बड़ा अच्छा काट लेते हो ? किसी बड़े आदमी का बाल काटें हैं?”

बिल्लू- “जी हाँ. सपने में, कहा था एक बार शाहरुख़ खान का.”

मैं- “तो मुंबई क्यों नहीं गए?”

बिल्लू- “जाता पर मेरी शादी हो गई. फिर दो बच्चे. बूढ़े माँ- बाप. तो इन जिम्मेवारियों को पूरा करता था सपनों को.”

अब आखिरी सवाल मैंने चुटकुले और रोमांचक ढंग से पूछा.

मैं- “एक लड़की थी दीवानी सी. बहुत प्यार करती थी मुझे हमेशा फोन किया करती थी. पर दो माह से उसका फोन आना बन्द हो गया है क्यों...”

बिल्लू- “हँसते हुए. फँस गई होगी साली दुसरे के साथ.”

उनके रिएक्शन सुनकर मैं हंसने लगा.

दोस्तों ! हमारे मकान में जैसे नींव होती है. वैसे ही पेपर वाला, दूध वाला,चाय वाला, बार्बर, कोब्लर या चाहे फूटपाथ पर गुपचुप बेचने वाला शख्स ये सब ही हमारे सामाजिक ढांचे के महत्वपूर्ण इकाई और नींव हैं. अगर हम इनके काम को सम्मान नहीं देंगे. तो इनका कभी उत्थान नहीं होगा. और जिस समाज का निचला हिस्सा जितना उन्नत होता है वह समाज उतना ही सभ्य, सम्पन्न और समृद्ध होगा.

हम बड़ा काम नहीं कर सकते लेकिन बड़े काम करने वाले छोटे छोटे लोगों के साथ हम अपना वर्ताव तो सही कर सकते हैं. उन्हें कम से कम एक स्माइल तो दे ही सकते हैं सेल्फी के बहाने.



***

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बोलना जरा संभल के,
ये जंग का मैदान है.
कोई भी; कुछ भी बोल देता,
क्या बकवास बातों का ये खदान है?

कर दो पोस्ट कोई,
ये बहुत बड़ी दिवार है.
हर आदमी पर  है देखो,
एक धुन सी सवार है.

 ये जोडती है सबको,
सारे देशों की, ये एक किताब है.
कोई भी हो समस्या तुम्हें,
यहाँ हर सवाल का जवाब है.

जिन्दगी एक सफ़र है तो,
ये सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म है.
यहाँ इश्क है, यहाँ प्रेम है.
कोई कूल है, तो कोई वार्म है.

ये विद्वानों का संसद है,
तो मित्रों का अड्डा है.
लाइक्स से मिलती खुशियाँ,
ना जाने ये कैसा फ़ायदा है?

ये दुख की; ये आनन्द की,
हर समय की, ये अभिव्यक्ति है.
जब शस्त्र नाकाम है,
तो ये सबसे बड़ी शक्ति है.

- अभिषेक कुमार
abhinandan246@gmail.com



रविवार, 18 सितंबर 2016

गुब्बारा

गुब्बारा(बेचने वाली वो लड़की)
           
किसी का इंतजार करना बड़ा उबाऊ सिचुएशन होता है.ऐसे टाइम को पास करने का सबसे आसान तरीका है अपनी आँखें मोबाइल स्क्रीन पर गड़ाते हुए ऊँगली फेरते रहिए, लेकिन मेरे पास विकल्प नहीं था. मेरा मोबाइल फोन बैट्री ख़त्म होने का संकेत दे रहा था. मेरे लिए ये पल पकाऊ (irritating) था, पर रोचक (interesting) और यादगार (memorable) कैसे बन गया आइए सुनाता हूँ.इस स्टोरी को सुनाने की वजह यह भी है क्योंकि this scene is my first meet with a unknown girl.”

हवा में लहराते हुए रंग बिरंगे गुब्बारों का गुच्छा जो उड़ना चाहती है. एक पल तो लगता है बस अब उड़ने ही वाली किन्तु नहीं. पतले से धागे जो कभी दीखते है कभी नहीं, मदमस्त गुब्बारों को ठीक उसी तरह बांधे हुए है जिस तरह गरीबी उस मासूम सी लड़की को बांधे हुए है. वह मायूस सी लड़की फीकी सी मुस्कान लिए अपने हाँथों से गुब्बारों को सम्भाल रही है. वह उन गुब्बारों को इधर-उधर बहकने से बचा रही है, यह सोचते हुए कि कहीं गुब्बारा फूट ना जाये. अगर एक गुब्बारा फूट गया तो 10 रु० और मम्मी की मार अलग से. ना जाने कितने ख्याल कितनी बातें उसे उलझाये जा रही थी, बिल्कुल उस उलझे- बिखरे हुए बालों की तरह जो उसके सिर की शोभा बढ़ा रही है. शायद दो वक्त किसी तरह कुछ भी खाने को मिल जाये इसी जद्दोजहद को जिन्दगी कहते है शायद, उसके चेहरे यही बयां कर रहे हैं. 

वह हरे और लाल फूल वाले पैटर्ननुमा, धुल से सनी फ्रॉक पहनी हुई है, जिसके एक- आध जगह सिलाई खुले हुए हैं. कभी कभी वह दाएं हाथ से जो गुब्बारों का गुच्छा पकड़ी हुई बदल लिया करती थी अनायास ही उसकी उँगलियाँ उस फटे हुए भाग चले जाती, धुंधले मन से ये सोचते हुए कि काश उसके कपड़े सिले हुए होते. इधर- उधर चक्कर लगा कर मॉल की लम्बी –ऊँची सीढियो पर बैठ जाती है.इस इन्तजार में कि कोई आये और उसका गुब्बारा खरीद ले. सीढ़ियों पर मॉल में आने-जाने वाले ग्राहकों का ताँता लगा हुआ है.कोई उस तरफ देखता भी है तो कोई देखना भी नहीं चाहता. किसी को फुर्सत नहीं तो किसी को फ्री में सबकुछ चाहिए. एक ग्राहक गुब्बारे की तरफ आ ही रहा था कि वो लड़की खड़ी हुई किन्तु क्या मन में आया वह ग्राहक भी चलता बना.

इस शोरगुल और आवजाही में वह मौन होकर कभी चारों तरफ देखती रहती.फिर कभी बैठे- बैठे अपने गुब्बारों को अपनी आँखें उठाये निहारती रहती. उसकी आँखों में गुब्बारे का प्रतिबिम्ब पड़ते ही वह चहक पड़ती, मुस्कुराने लगती और मीठे स्वर में कहने लगती “गुब्बारा ले लो..., गुब्बारा......”

“कितने का है एक” ये आवाज सुनते ही वह लड़की पीछे मुड़ी. आवाज देने वाली महिला के पास जाकर कहती है “10 रु०”. ग्राहक महिला अपने साथ खड़ी 5 साल की बेटी से पूछी- “कौन सा बेलून चाहिए मेरे बेटे को?”

प्यारी सी बच्ची ने लाल गुब्बारे की तरफ ऊँगली से इशारा करते हुए कही “वो”. उस लाल बेलून का धागा अपने बेटी को पकड़ाते हुए अपने भूरे पर्स से रूपये निकालने लगी. 

गुब्बारा बेचने वाली लड़की, उस बच्ची को गुब्बारे से खेलती हुई ना देखकर उसके फ्रॉक को देखती है शायद वह ये सोच रही है कि काश मेरे पास भी उसके जैसा फ्रॉक होता. उस लड़की की मुखाकृति को देखते हुए सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितने अंतर्द्वंदों को वह मन ही मन झेल रही है. उसका एक मन उसे अच्छे कपड़े ना होने का एहसास दिलाता है तो दुसरे ही पल उसके पास एक नहीं ढेर सारे गुब्बारे होने की खुशियों का झांसा दिलाता है. 

“कहाँ देख रही है, ये लो 10 रु०” वह महिला पैसे थमाते हुए कार में जा बैठती है. कार आगे बढती चली गई, जिसकी खिड़की से वो बलून निकला हुआ था.

“कितना खुबसूरत लग रहा है ना भैया; लेलो तुम भी एक” वहीँ वाईक पर सवार एक जवान व्यक्ति से वो लड़की आग्रह करती है.

उस व्यक्ति के पीछे एक लड़की बैठी है मालूम पड़ता है उसकी गर्लफ्रेंड होगी. “ले लो ना जानू! कितना प्यारा है गुब्बारा.”गर्लफ्रेंड ने नखरीले टोन में उस व्यक्ति से कहा.

“तुम भी हद करती हो, क्या करोगी गुब्बारे का ? ”- व्यक्ति बोला.

“मैं अपने बेड रूम में लगाउंगी”- गर्लफ्रेंड ने जबाब दिया.

“ये लो. दिल वाला, इसके 20 रु० लगेंगे”- गुब्बारा बेचने वाली लड़की ने कहा.

(मुझे आश्चर्य हो रहा था,ये सोच कर कि एक गुब्बारे बेचने के लिए कितने ग्राहकों को झेलना पड़ता है)

“नहीं चाहिए. ये सब तुरंत फूट जाते हैं, फिर क्या फ़ायदा.” बाइक पर सवार वह व्यक्ति मुँह फेरते हुए कहा.

“नहीं फूटेगा, ये गुब्बारा अच्छा वाला है ”- लड़की बोली.

“फूट गया तो”- व्यक्ति ने कहा

“फूट गया तो और भी मज़ा आएगा”- लड़की बोली (हँसते हुए)

इतना सुनते ही उस व्यक्ति की गर्लफ्रेंड जोर-जोर से हँसने लगी.... और कही –“एक काम करो मुझे अपना सारा बलून मुझे दे दो ”

अचानक मेरा फोन vibrate हुआ.पॉकेट से मैंने मोबाइल निकला. स्क्रीन पर लिखा आ रहा था “unknown no Calling........”

मैंने फोन रिसीव करते हुए कहा “हेलो.....” .

उस गुब्बारे बेचने वाली लड़की को मेरी नज़र खोजने लगी पर शायद वो कहीं जा चुकी थी.

उधर से भी मुझे रिप्लाई मिला- “हेलो.” आवाज पहचानते हुए मैंने पूछा- “तुम कहाँ हो, मैं मॉल के सामने तुम्हारा एक घंटे से वेट (wait) कर रहा हूँ.”

“मैं मॉल के इंट्री गेट के सामने हूँ, ढेर सारा बलून लिए हुए”- वो बोली

“अच्छा वो तुम्हीं हो”- मैंने कहा.

उसके पास जाकर मैंने उससे पूछा ये व्यक्ति जो अभी गया कौन था ?

“वो....वो तो रिचार्ज वाले भैया थे.” उसने कहा.

“मैंने तो उसे तुम्हारा बॉयफ्रेंड समझ रहा था.आज कल तो दो –तीन बॉय फ्रेंड रखना आम बात हो गई है.”मैंने कहा.

“तुम भी ना.....” वो कहते हुए मेरे साथ मॉल में एंटर कर गई.

आज जब मैं इस कहानी को लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ वो गुब्बारा बेचने वाली प्यारी सी लड़की नए फ्रॉक के लिए पैसे इकठ्ठा कर चुकी होगी.



-अभिषेक कुमार 

abhinandan246@gmail.com



सोमवार, 5 सितंबर 2016

अम्बेदकर चौंक
  (ऐसी तस्वीर जो कभी नहीं बदलने वाली)

यूँ तो आपको सभी जिले के शहर में अम्बेदकर चौक मिल जायेगें. अगर अम्बेदकर चौक नहीं होगा तो कचहरी (व्यवहार न्यायालय) चौक तो आपने जरुर देखा होगा. वही कहीं आसपास डॉ. भीम राव अम्बेदकर (संविधान निर्माता) की प्रतिमा मिल जाएगी.ये प्रतिमा मिलना और होना दोनों जरुरी है क्योंकि हम आम नागरिक को, खास लोगों द्वारा बताए गए, महान बातों को भूलने की बीमारी होती है. डॉ. भीम राव अम्बेदकर बाएँ हाथ में संविधान लिए हुए और दायें हाथ से लोकतंत्र के मंदिर (संसद भवन ) की ओर इशारा कर रहे हैं. उनके बढ़ते कदम स्वर्णिम भविष्य की ओर अग्रसर हैं. वे एक महा स्वप्नदर्शी और सच्चे देशभक्त थे जिन्होंने देश को एक सूत्र में पिरोने का सतत संघर्ष करते रहे. वे चाहते थे कि सबको समान मौके दिए जाये और सभी लोगों को सामान अधिकार प्राप्त हो. वे चाहते थे कि सब लोग अपने सामर्थ्य और शक्ति अनुसार संघर्ष करें और देश के विकास में अपना सहयोग दें. ये बातें मुझे स्कूली दिनों में बताई गई थी. उस वक्त मैं सोचा करता था कि अगर सबलोग अम्बेदकर जी के बताए मार्ग पर चलेंगे तो सचमुच देश की तश्वीर बदल जाएगी.

शहर की एक सड़क है जो ट्रेफिक चौंक से अम्बेदकर चौंक होते हुए कचहरी चौंक तक जाती है. ये सड़क वहीँ ख़त्म नहीं होती.किन्तु हम आपको ज्यादा दूर नहीं ले जायेंगे. सड़क के बीचों बीच लम्बी सी दिवाइडर है जो पहले छोटी हुआ करती थी किन्तु जैसे जैसे समय बदलते गए वैसे वैसे दिवाइडर की ऊंचाई भी बढती गई.पता नहीं ये दिवाइडर और कितनी ऊँची होगी. गौर करने वाली बात ये है कि दिवाइडर सिर्फ सड़क को दिवाइडर नहीं करती. ये उन सोसाइटी को भी अलग अलग करती है जो सड़क के दोनों तरफ फैले हुए हैं. एक तरफ स्वर्ण आभूषण,महँगे ब्रांडेड जूते चप्पल की दुकानें और कई बड़े मॉल भी हैं. 

वहीँ सड़क के दूसरी तरफ चार पांच रिक्शा वाला अपने ग्राहकों के इन्तेजार में खड़ा है. आने- जाने वाले राहगीरों को वो तो बड़ी मासूमियत से निहार रहा है किन्तु गरीबी, भूख और धूप ने उसका चहेरा निर्दयी सा बना दिया है. जो की हर किसी को वो घूरता हुआ नज़र आता है. आखिर कौन समझे कि वो भी एक इन्सान है. उसके पास भी दिल है.मैंने कई दफा देखा है मोटी सी महिलाएं या पुरुष रास्ते ऊँचे होने पर भी रिक्शे से नहीं उतरते उलटे रिक्शे वाले को भला बुरा ही सुनाते. आगे बढ़ने पर लिट्टी चोखा वाला दो-चार लिट्टी बनाकर उसपर पंखे झेल रहा है, कहीं उस पर मक्खी ना बैठ जाये. आसपास गन्दगी का ढेर पर कई ठेले हैं. कोई पूरी तरह टूटी हुई, तो कोई खड़े रहने का प्रयास करते हुए, हालाँकि उसके जो पहिए है पूरी तरह नाकाम है. कई तो खुटों से बांध दिए गए हैं.उन ठेलों पर कई तरह की हरी सब्जियां पंक्ति बद्ध सजी हुई है.ऐसा लगता है कुछ सब्जियां ग्राहक के स्वागत गान के लिए खड़ी हैं. और जिन टोकरियों में सब्जियाँ बिखरी पड़ी हैं ऐसा लगता है मानों वे आपस में लड़ रही हैं. और कह रही हैं मुझे ले लो मुझे ले लो. इन सब्जियों को बेचने वाले वो लोग हैं जिन्हें अपना आवास नहीं है वो ठेला ही उनका एक मात्र ठिकाना है आशियाना है. जमीन पर बोरा बिछाए पूरा परिवार सब्जियां बेचने में जुटा है. बगल में ही एक गरीब गर्भवती स्त्री खुले कड़ी धूप में बैठी प्याज और लहसुन बेच रही है. वही छोटा सा अधनंगा 4 या 5 साल का लड़का, शायद उसी स्त्री का पुत्र होगा; जो बार बार ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करने का असफल प्रयास कर रहा था. उसकी आँखों में एक डर है जो कह रही है प्लीज प्याज ले ना. नहीं तो मुझे भूखा सोना पड़ेगा. एक ग्राहक आया भी तो उस महिला से उलझ पड़ा कहने लगा कम क्यों तौल रही है? तुम लोग कैसी है रे एक प्याज चढ़ने नहीं देती. हाफ पैंट पहने, बाइक पर सवार एक गोरे ने खाली थैला बढ़ाया.थैला भर कर वो प्याज बेचने वाला जिससे थैला बड़ी मुश्किल से उठ रहा था.वो गोरा व्यक्ति पैसे उस बच्चे को सौ का नोट दिया और कहा चल जल्दी से छुट्टा ला. 

आप सोच रहे होंगे मैं वहां क्या कर रहा था. श्री मान ! वहाँ से कुछ ही दुरी पर एक चाय की दुकान है. बढ़िया चाय बनता है. आगे तो आप समझ ही गए होंगे मैं कड़ी धूप में वहां चाय तो नहीं पी रहा होउगा. मेरे हाथों में मेंगो फ्रूटी ही होगा. खैर, मोल भाव करने वाले वो लोग हैं जो रेस्टोरेंट में 500 रु एक वेटर को देने में नहीं हिचकते.चलिए उस प्याज वाली के बगल में एक बूढी औरत बोरे और थैले से भुट्टा निकाल रही है. शाम होते ही उसका गरमा गरम भुट्टा बिकने के लिए तैयार हो जायेगा, किन्तु भुट्टा पकाने के पहले सारा इंतजाम करना पड़ेगा ना. सो वो चूल्हे में कोयला डाल रही है साथ ही दमघोटू धुंए से जूझ भी रही है.सोचता हूँ क्या जरुरत आ पड़ी इस बूढी को भुट्टा बेचने की. क्या इसका बेटा इन्हें छोड़ अपनी पत्नी के साथ कहीं चला गया है या फिर इसे घर से निकाल दिया गया है.

दुसरे दिन की बात है. मॉल के ठीक सामने. रोड के दूसरी तरफ, भुट्टे वाली सब्जी वालों के कतार में ही. मैं अपने एक मित्र के आग्रह पर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ठीक वहीँ पर एक मोची बैठता है.जूते चप्पल रिपेयरिंग करता है.मैंने देखा कई लड़कियां जो पेंसिल हिल वाली सेंडिल में काँटी ठोकने के बाद उस मोची को इसलिए भला बुरा कह रही थी कि उसने 10 रु ज्यादा मांग लिए. मैं पूछता हूँ क्यों. आखिर क्यों हम लोग ऐसी आदत के शिकार होते जा रहे है कि सिर्फ और सिर्फ अपने ही बारें में सोचते हैं. अपने थोड़े से लाभ के लिए दुसरे से लड़ते रहेंगे. जरा सा कुछ हुआ नहीं कि बेवजह तमाशा बनाना इस दौर का शगल हो गया है. तुनक मिजाजी मानसिकता जिसे मेंटल वार्मिंग नाम दिया जा सकता है, हमारे ऊपर हावी होता जा रहा है.

वो मोची वाला शायद सही कह रहा था ac ऑफिस में बैठने वाले लोग कब समझेंगे कि सड़क के किनारे धुल और धूप फंखाते हुए काम करने की क्या कीमत होती है. 



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शनिवार, 3 सितंबर 2016

आदमी और कुत्ता

दो चार लोगों में कुत्तों के रोगों को लेकर काफी चर्चाएँ हो रही थी. मैंने भी सोचा अपनी तरफ से कुछ कह दूँ. तो बिना सोचे समझे मैंने अपना विचार उन मित्रों के सामने रख दिया. मैंने कहा “आदमी और कुत्तों में काफी समानताए दिखने लगी है.यहाँ समानता से मेरा अभिप्राय भोंकने से है.अगर आप वफादारी की बातें सोच रहें हैं तो मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कुत्ते और आदमी में वफ़ादारी में समानता की बात करना मुर्खता होगी.” इतनी ही बात मैं कह पाया था की मेरा मोबाइल जोर जोर से बजने लगा.फोन पर बात करने के बाद किसी कारण से मुझे वहां से प्रस्थान करना पड़ा.
मुझे लगा की मुझे उन लोगों के समक्ष कुछ ऐसी बातें करनी चाहिए जो बेमतलब हो. सच पूछिए तो लोगों को फिजूल की बातें में बड़ा आनन्द आता है किन्तु जैसे ही कुछ सामजिक बातें या सूझबूझ भरी बातें किए फिर तो आप की खैर नहीं नहीं. आप बिल्कुल उस मेमने की तरह महसूस करेंगे जो चारों तरफ आवारा कुत्तों से घिरा हो. जब मैं वहां से आ रहा था तो मुझे कुत्तों का झुण्ड दिखाई पड़ा जो सब के सब एक दूसरे पर भौंक रहे है. मैं उस गली से दूसरी गली की तरफ मुड़ गया. क्योंकि मैं कुत्तों से बहुत डरता हूँ.
दूसरे शाम मुझे नुक्कर नाटक व हास्य कार्यक्रम देखने को मिला.वहां काफी मनोरंजन हुआ. एक व्यक्ति कुत्तों की मिमिकरी कर रहा था कुत्तों की विभिन्न प्रकार के आवाज निकाल रहा था. कुत्तों के बहुत सारे हरकतों को जानने और खुल कर हँसने का मौका मिला. उस शाम के बाद मेरी रूचि में परिवर्तन सा हो गया है.मैं कभी भी कुत्ते पालने का शौक़ीन नहीं रहा हूँ.
मैं शहर में नया तो नहीं हूँ. फिर भी ना जाने क्यों, हवा बदली हुई सी लग रही है. हर दूसरा आदमी भूखा,बदहवास सा हांफता हुआ बिलकुल कुत्तों जैसा दिख पड़ता है. कुछ आदमियों में आंशिक कुछ में पूर्ण रूप से कुत्तों के गुण सॉरी अवगुण ट्रांसफर हो गए हैं. उदाहरण स्वरूप- शहर के मुख्य मार्ग के किसी भी गली के मुख्य मोड़ पर, आप को एक पोल (खम्भा) दिख जायेगा. पहले उस पोल पर कुत्तों का राज था वे वहीँ बड़े इत्मिनान से, अपनी एक टांग को 45 डिग्री पर उठाते हुए; मूत्र विसर्जन किया करते थे. किन्तु अब वह हर पोल आदमियों का हो कर रह गया है, क्योंकि कभी कोई पोल खाली मिलता ही नहीं. कोई ना कोई वहां अपनी बैचनी शांत कर रहा होता है. पोल के आस –पास का एरिया भी कैप्चर कर लिया गया है. उन लोगों द्वारा जो कुत्तों की अनुवांशिक गुण के शिकार हो गए हैं. बेचारे कुत्ते भी क्या करे वह इन्तजार में खड़ा रहता है कि मेरी बारी है वो सोचता होगा वो भी क्या दिन थे. उस ज़माने में हर कुत्ते का अपना एक पोल रिजर्व हुआ करता था. उस पोल पर सिर्फ एक ही कुत्ते का अधिकार हो सकता है. ऐसे नियम थे तब. अब तो कोई किसी की सुनता तक नहीं.  कि तपाक से दूसरा व्यक्ति आ धमकता है. वो उदास और बेबस हो कर वहां से चल पड़ते हैं. सामने दिवार पर एक फ़िल्मी पोस्टर चिपका था,जिसे निहारते ही  अचानक उसके चहरे पे मुस्कान तैरने लगी.
वो कुत्ता अपनी सामाजिक जिन्दगी से त्रस्त तो था ही पर मेरी समझ में ये बात नहीं आ रही थी. वो इतना खुश क्यों है. उसकी ख़ुशी का मुझे ज्ञान तब हुआ जब मैंने अपने मित्र के पास किसी काम से गया. वे कुत्तों के अनुसन्धान कार्यक्रम से जुड़े थे इसलिए कुत्तों के बारे में भी पूछ ताछ कर लिया. उस अनुसन्धान करने वालों का काम था कुत्तों के बारें में जानकारी इकट्ठा करना. और ये पता लगाना कि आदमी और कुत्तों में क्या समानता और क्या-क्या भेद है.
एक दिन मैं अख़बार पढ़ रहा था. मेरी नज़र एक छोटे से कॉलम के मोटे शीर्षक पर रुक गई. लिखा था- शहर में आवारा कुत्तों की संख्या में बढ़ोतरी. मैं कन्फ्यूज हो गया ये किनकी बात कर रहे हैं. उन जानवर रूपी कुत्तों की या आदमी के रंग रूप वाले.
साहब ! अब वो जमाना चला गया जब लोग विनम्रता के साथ एक दुसरे के साथ पेश आते है. उनमें संवेदनाएं थीं. उनमें एक दुसरे को सहानभूति और प्रोत्साहित करने की प्रकृति थी. अब तो ज्यादातर लोग ऐसे मिलेंगे जैसे किसी पागल कुत्ते ने काट लिया हो. वे बोलते नहीं भोंकते हैं. खबरिया चनेलों पर हो रहे विचार विमर्श या संसद इसके प्रत्यक्ष  उदाहरण हो सकते हैं.
हाँ तो शुरू मैंने कुत्ते पालने की अपनी रूचि के बारे में आपको बता रहा था. एक सुबह मोरनिंग वाक के लिए निकला. ठीक उसी वक्त वो मित्र (कुत्तों के विशेषज्ञ) मिल गए. मैंने उनसे हाल पूछते हुए कहा क्या सब ठीक है ना ?उन्होंने शब्द को रस्सी की तरह खीचतें हुए कहा- ठीई............क है. उनके चेहरे से खीज और झुंझलाहट साफ दिख रहा जिसे वे ढकने का प्रयास कर रहे थे.फिर मैंने अपने काम के बारे में पूछा.वे इतने जोर से मुझपर बिगड़ पड़े. जिससे मेरा सुबह तो ख़राब हुआ ही सारा दिन भी बेकार गया.
ऐसी परिस्थिति से आप का भी कभी ना कभी सामना हुआ होगा. आप सोच में होंगे कि आखिर मैंने तो कुछ गलत नहीं कहा फिर उसके गुस्सा होने की वजह? होता ये है कि कई ऐसे आदमी आपको मिल जाते जो अपने सिर पर इतना कचरा लिए घूमते हैं जिसका अंदाजा उन्हें खुद नहीं होता.वे किसी अन्य जगह का frustration या tension रूपी कचरा किसी दुसरे पर फेंकने की जुगाड़ में रहते हैं. जिसका ना आपको पता चल पता है की सामने वाला कचरा लिए घूम रहा है. ऐसे झुंझलाने वाले लोगों को भी मालूम नहीं चल पाता कि वे ऐसा रियेक्ट क्यों कर रहे हैं.
कभी कभी तो मेरे व्यवहार में भी गुस्सा के परत देखे जा सकते है. मैंने इस पर चिंतन कर पाया कि हम जब गुस्से में किसी से बात कर रहे होते हैं तो आप की उर्जा तो खपत होती ही है रिश्ते भी ख़राब हो जाते हैं. इस लिए मैं एक ट्रेंड कुत्ता खरीदने चल पड़ा ताकि वो सदा मेरे पास रहे और मुझे याद दिलाता रहे कि भौंकने का काम हम कुत्तों का है आप जैसे नेक आदमी का नहीं. कुत्ता पालने के कई फायदे हैं जो आदमी आप पर भौंके उनपर आप अपने कुत्ता को छोड़ दीजिए उनसे वार्तालाप करने. आप उनपर प्रतिक्रिया ना दे और ना कोई कमेंट, बिल्कुल इसी तरह जिस तरह इस रोचक लेख को पढ़ कर नहीं देने वाले हैं.
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एक सवाल आपके लिए छोड़ रहा हूँ.

पोल से बेदखल होकर भी वो कुत्ता खुश क्यों था?
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C-7a: Pedagogy of social science [ B.Ed First Year ]

1. माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने के लिए आपके द्वारा चुने गए विषय का क्षेत्र क्या है ? उदाहरण सहित व्याख्या करें। माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने के लिए हम...