‘वर्तमान युग की समीक्षा - अन्धायुग’ की समीक्षा
उस भविष्य में
धर्म – अर्थ ह्राशोंन्मुख
क्षय होगा धीरे धीरे सारी धरती का
सत्ता होगी उनकी
जिनकी पूंजी होगी .
जिनके नकली चेहरे होंगे,
केवल उन्हें महत्त्व मिलेगा .
राज शक्तियां लोलुप होंगी,
जनता उनसे पीड़ित होकर,
गहन गुफाओं में छिप छिप कर दिन काटेगी,
ऐसा कहा जाता है कि हमलोग कलियुग में जी रहे हैं जिसकी भविष्यवाणी
लाखों हजारों वर्ष पूर्व की जा चुकी थी . उपरोक्त उदघोषणा को ही प्रसिद्ध कवि,
लेखक और सामाजिक चिन्तक डॉ. धर्मवीर भारती द्वारा रचित अँधायुग की आत्मा कही जा
सकती है . अँधा युग का अंग्रेजी में अनुवाद भी हो चूका है जिसे द ऐज ऑफ़ ब्लाइंडनेस
या द ब्लाइंड ऐज कहा गया है . अमांगलिक
परिस्थितियों या युद्ध के बाद की त्रासदी के कालखण्ड को कवि ने अँधा युग की संज्ञा
दी है . महाभारत की पौराणिक कथाओं को आधुनिक संदर्भो में वर्तमान समय तथा सत्य की
अभिव्यक्ति हेतु अनूठा प्रयोग किया है . महाभारत के पात्रों को लेकर लिखी गई यह
काव्यनाटक को रचनात्मक प्रस्तुति के तौर
पर नई उपलब्धि मिली है .
धर्मयुग पत्रिका के संपादक रहे धर्मवीर भारती जी द्वारा रचित
अंधायुग का प्रकाशन सन 1954 ई०
में हुआ था .लगातार कई वर्षों से मंचित अँधायुग हिन्दी काव्य नाटक या गीतिनाट्य की
प्रतिनिधि रचनाओं में से एक है . महाभारत युद्ध के अंतिम दिनों पर आधारित यह नाटक
युद्ध, युद्ध के बाद की दुर्गति- परिस्थतियों, युगान्तकारी समस्याओं, मानवीय
मर्यादा, धर्म, महत्वाकांक्षा आदि को अद्भुत, प्रभावी तरीके से प्रकट करती है .
इस नाटक में महाभारत के अठारहवें दिन से
लेकर भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु तक के क्षण को सजीवता पूर्ण ढंग से पाठकों व्
दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया है .
इस हिन्दी काव्य नाटक में विभिन्न पात्रों
की योजना की गई है . ये पात्र महाभारत के केरेक्टर मात्र नहीं अपितु किसी विशेष
प्रतीकात्मकता का बोध कराते है जिनका बहुत हद तक प्रस्तुत नाटक में उल्लेख हुआ है .
इस काव्य नाटक के प्रमुख पात्र हैं :-
अश्त्थामा, गान्धारी, धृतराष्ट्र, कृतवर्मा,
संजय, वृद्ध याचक, प्रहरी- 1, प्रहरी-2, व्यास, युधिष्ठिर, कृपाचार्य, युयुत्सु, गूंगाभिखारी,
बलराम, कृष्ण इत्यादि .
यह सर्व विदित है कि महाभारत, हस्तिनापुर
के सिंहासन के लिए कुरु वंश के दो परिवारों कौरवों और पाण्डवों के बीच कुरुक्षेत्र
में हुए महा युद्ध का वर्णन करने वाला यह महाग्रन्थ है .
धर्मवीर भारती द्वारा रचित अंधायुग शीर्षक काव्यनाटक
में महाभारत युद्ध के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास- तीर्थ में कृष्ण
की मृत्यु के क्षण तक है . हालाँकि यहाँ यह बतलाना उचित रहेगा कि कृष्ण ‘अंधायुग’
में कभी मंच पर नहीं आते बल्कि अन्त में अश्वत्थामा को कृष्ण की मृत्यु का सन्देश
देते हुए वृद्ध कहता है –
बोले अवसान के क्षणों में प्रभु
मरण नहीं है ओ व्याध .
मात्र रूपांतरण है यह
सबका दायित्व लिया मैंने अपने ऊपर,
अपना दायित्व सौंप जाता हूँ मैं सबको .
अब तक मानव – भविष्य को मैं जिलाता था .
लेकिन इस अंधे युग में मेरा एक अंश
निष्क्रिय रहेगा, आत्मघाती रहेगा,
और विगलित रहेगा .
प्रमुख पात्रों का संक्षिप्त विश्लेषण के
बाद प्रतीकात्मकता पर विचार करेंगे .
अश्वत्थामा – प्रतिशोधवश बर्बर पशु की
भांति अँधा हो चुका है .
गान्धारी – दुष्ट पुत्रों के प्रति ममता के
कारण अन्धी हो चुकी है .
धृतराष्ट्र – जन्मान्धता के साथ-साथ अंधों
का महाराज है .
कृतवर्मा – पक्षपात एवं कर्तव्यवश यह यदुवंशी
अँधा होना चुना है .
संजय- तटस्थद्रष्टा होने बावजूद मोहवश निष्क्रिय
अँधा बना .
वृद्ध याचक – ज्योतिष विद्या को एक मात्र
सत्य मानने के भ्रम वश अँधा हो चुका था .
युयुत्सु – धर्मात्मा किन्तु दुर्भाग्य,
हिन् भावना से पीड़ित साथ ही साथ दूसरों पर आश्रित रहने की प्रवृति के कारण
उपेक्षित .
विदुर – धर्मराज किन्तु अधर्मियों के बीच
रहने को अभिशप्त
कृपाचार्य – कौरवों – पाण्डवों के गुरु
किन्तु पूर्वजों की कृपा से दबे हुए .
व्यास – पुरे घटनाक्रम के साक्षी किन्तु
ज्ञान निधि को विलुप्त होते असहाय देखते हुए
युधिष्ठिर- युद्ध जीतने के बाद भी शोक
संतप्त एवं पश्चाताप से पीड़ित
प्रहरी – राज महल के रक्षक किन्तु रक्षणीय
कुछ भी नहीं और थके हुए भी .
गूंगा भिखारी – प्यासा सैनिक जिसकी जिह्वा
कटी हुई और घायल पांव .
कृष्ण –
अश्व्थामा ने जिन्हें शत्रु कहा .
युयुत्सु ने जिन्हें खुद के दुर्भाग्य का
दोषी तहराया .
संजय ने जिनको कोशा .
गान्धारी ने जिनको मृत्यु का शाप दिया .
विदुर ने जिनको प्रभु माना
धृतराष्ट्र ने जिनकी प्रभुत्व पर संदेह
किया .
कृतवर्मा ने जिनको साहस से जितना चाहा .
कृपाचर्या ने जिनको अभिमानी समझा
वो वृद्ध याचक जो ज्योतिषी ठहरा, जिनपर नया गणित बिठा डाला .
और व्यास जो थे त्रिकाल दर्शी .
इन्होने ही कृष्ण को विष्णु का अवतार कहा .
कृष्ण जिन्होंने स्वयं को करुणा, ज्ञान और
प्रेम कहा .
मनुष्यों ने जिनको ईश्वर, परमात्मा और
भगवान कहा .
पौराणिक कथाओं पर आधारित इस प्रकार के
नाट्य साहित्य के पीछे साहित्यकार का मुख्य उद्देश्य आधुनिक सन्दर्भों को उजागर
करना .
हिन्दी में नाट्य साहित्य में काफी प्रयोग
हुए हैं और इस प्रकार की रचनाएँ व् नाटक सफल भी रहे हैं . ऐसे साहित्यिक प्रयोग से
कलात्मक मूल्यों एवं संप्रेषणीयता की पद्धतियों में अभिवृद्धि हुई है . धार्मिक
भावना के प्रेषण हेतु हिन्दी में कई रचनाएँ हुई हैं किन्तु अंधायुग अपने अतीत के
सन्दर्भों को वर्तमान से जोड़ कर उन्हें विश्लेषित करता है अन्य रचनाओं के
अन्धानुकरण के बजाय .
काव्य नाटक की उपलब्धि को निविवाद रूप से
रेखांकित करने वाली रचना है . डॉ. धर्मवीर भारतीकृत अंधायुग . इस रचना ने हिन्दी
साहित्य में पहली बार कविता और नाटक, साहित्य और रंगमंच तथा अतीत और वर्तमान का
गहरा अभिन्न सम्बन्ध पूरी तीव्रता एवं सच्च्चाई से स्थापित किया .
अंधायुग में अंकित कुल चार पांच घटनाओं हैं
जो उस कल के पतनशील व् विध्वंशक रूप को उद्घाटित करती है .
अँधा युग में अंकित कुल चार-पांच घटनायें
हैं जो उस कल के पतनशील व् विध्वंशक रूप को उद्घाटित करती है .
पहला अंक – कौरव नगरी
दूसरा अंक – पशु का उदय
तीसरा अंक – अश्वत्थामा का अर्धसत्य
चौथा अंक – गान्धारी का शाप
पांचवा अंक – विजय एक क्रमिक आत्महत्या
मंगलाचरण से महान नाटक शुरू होता है जिसमें
सम्पूर्ण विश्व की सर्वोच्च शक्ति भगवान विष्णु एवं ज्ञान और संगीत की इष्ट देवी
सरस्वती की वंदना की गई है व्यास द्वारा .
उदघोषणा के अंतर्गत आनेवाले अंधे भविष्य की
प्रमाणिकता सिद्ध करते हुए उसकी वस्तु स्थिति व् परिस्थितियों का चित्रण किया गया
है . ताकि दर्शक, श्रोतागण या पाठक अंधायुग के विषयवस्तु से परचित हो सके .
बीच में अन्तराल और अन्तराल के बाद
नाट्यमंच पर पूर्व की भान्ति अंधकारपूर्ण वातावरण का पुनः सृजन अत्यंत सुनियोजित एवं
व्यवस्थित है .
तीन बार तूर्यनाद के उपरांत देखने को तत्पर
मंच पर आँखें टिकाये हुए कथा गायन के श्रवण से ये जान जाते हैं कि यह महा युद्ध के
अंतिम दिन की उदासी भरी संध्या है . जहाँ कौरवों के सुने महलों में प्रहरी घूम घूम
कर पहरा दे रहे हैं . पहले अपनी फिर सन्नाटे पसरे हुए गलियारे और पुराणी यादें (राजमहल
से जुड़ी हुई ) की बातचीत करते हुए तत्कालीन
धर्म, संस्कृति और मर्यादा पर व्यंग करते हैं साथ ही साथ उन्हें अपनी
निरर्थकता का आभास होता है . ये कहते हुए कि वे जिन चीजों की रक्षा कर रहे हैं अब
यहाँ रक्षनीय कुछ भी नहीं . अर्थहीन मेहनत तो वे करते हुए थक ही गए हैं साथ में
उनकी आस्था, उनका अस्तित्व उन्हें अर्थहीन प्रतीत हो रहा है . दो प्रहरियों की इस
बातचीत से वर्तमान युग की जनता का बोध होता है जो मात्र पल पल अपने अर्थहीन जीवन
में कुछ लोग निरर्थक परिश्रम कर रहे हैं तो वही कुछ लोग डरे – सहमे निष्क्रिय बैठे
हैं .
अंधायुग काव्य नाटक में घटनाओं का मंचन हुआ
है वे सुसम्बद्ध एवं सुनियोजित रूप से प्रस्तुत किए गए हैं . उक्त घटनाएँ महाभारत
के शल्य पर्व, सौप्तिक पर्व, शान्ति पर्व, आश्रमवासिक पर्व, महा प्रस्थानिक पर्व
आदि दीर्घ प्रसंगों में बिखरे हुए इतिवृत्त की भांति है. यहाँ यह बताना भी
श्रेस्कर होगा कि जब युयुत्सु भीम व् जनता से अपमानित होता है , खुद की हिन् भावना
से ग्रसित होकर आस्था विहीन होकर आत्मघात करने की चेष्टा करता है . घायल युयुत्सु की सेवा
श्रुश्रुसा विदुर करते हैं . परीक्षित, जिनका अन्धायुक्त नाटक में मात्र एक बार
नाम लिया जाता है वो भी यह बतलाने के लिए कि परीक्षित और युयुत्सु अब जीवित नहीं
है . परीक्षित युधिष्ठिर के बाद हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी नियुक्त हुआ था और
युयुत्सु उनका प्रधान सेनापति बना . कृपाचार्य ने परीक्षित को धनिर्विद्या सिखाई
थी. युधिष्ठिर के राज्यभिषेक से लेकर
युयुत्सु का प्रेत योनी के रूप में विचरण के दौरान अश्वत्थामा से संवाद है . इतने
बड़े घटना क्रमों और अंतरालों को काव्य नाटक अंधायुग के रचनाकार भारती जी ने बड़ी सुविधापूर्ण ढंग से
मात्र कुछेक अंशों को पर्दे पर प्रकट किया है जिससे उनकी गहन प्रतिभा और
अभिव्यक्ति क्षमता को दिखता है .
वास्तव में धर्मवीर भारती जी की ये रचना
पौराणिक बनाम आधुनिक कृति है . डॉ कमला प्रसाद पाण्डेय ने इसी सन्दर्भ में कहा है
–“इस प्रख्यात कथावस्तु में नए सन्दर्भ नई समस्याएं, युद्ध की संस्कृति एवं
अनास्थाओं की उत्पाद्य वस्तु को कवि ने एक साथ रूप प्रदान किया है जिसके सभी पात्र
एवं घटनाएँ भी उत्पाद्य हैं यद्यपि उनकी रेखाओं का रंग पुराना है”
अंधायुग की स्थापना में भारती ने कहा है जो
कृष्ण के व्यक्तित्व से चेतना को प्रकाशित करती है यही इस काव्य नाटक का केन्द्रीय
भाव है उद्देश्य है . इसी उद्देश्य की प्रतिक्त्मकता ने तृतीय विश्वयुद्ध के
त्रासद द्वन्दों के मध्य चल रहे वर्तमान युग को ज्योति और विश्वाश देने का प्रयास
किया है .
अँधा युग शीर्षक भी प्रतीकात्मक है .
द्वितीय विश्वयुद्ध के लोमहर्षक परिणामों ने राजनीति और साहित्य को अन्धकार से भर
दिया है जिसका प्रतीक अंधायुग बना . आज संसार में संकट की स्थतियों से मनुष्य की
आत्मा और जीवन जर्जर हो चुका है और विकृत भी .
अँधा युग के पात्रों के जिवंत चित्रांकन और
व्यक्ति की मूल प्रवृत्तियों के प्रतीक रूप में प्रस्तुति कारण के साथ साथ यह भी
द्रष्टव्य है कि ये सभी चरित्र मानवीय अस्तित्व की अपेक्षा विशेष विचार धारा अथवा कुंठाओं
के प्रतीक अधिक हैं . युधिष्ठिर एवं धृतराष्ट्र नेतृत्व वर्ग की अन्धी शक्ति
उपासना, सम्पूर्ण विश्व पर एकाधिकार की स्वार्थी वासना के प्रतीक हैं .
चौथे अंक में गान्धारी मानवता का वह घबराया
हुआ वर्ग है जो युग बर्बर पशुत्व, अमर्यादित नैतिकता और जीवन के द्वन्दमय
विरोधाभासी संस्कारों के कारण प्रतिक्रिया स्वरुप कटु निराशा की अनास्था का मार्ग
पकड़ लेती है .
द्वितीय अंक में अश्वत्थामा प्रतिहिंसक
पशुत्व और एक न्यूरोटिक युद्ध लिप्सा के अर्धसत्य का प्रतीक है . उसे गलत प्रतिशोध
के कारण निराशा एवं अंतर्द्वंद की यातना के लिए अभिशप्त एवं विक्षिप्त बना दिया
गया है . अश्वत्थामा उस वर्ग का संकेत देता है, जिसपर महायुद्ध का प्रत्यक्ष
प्रभाव पड़ा. महायुद्ध के सीधे प्रभाव में आने वाले राष्ट्रों के मानसिक असंतुलन की
यह विक्षिप्त पूर्ण अवस्था अश्वत्थामा के रूप में स्पष्ट रूप से सामने आती है . अश्वत्थामा
के ब्रम्हास्त्र प्रयोगों में अणु विस्फोट का संकेत है .
अंधायुग का युयुत्सु आज के उस मानव का
प्रतीक है, जिसे हम आज का धुरीहीन भटकता हुआ व्यक्ति कह सकते हैं .
दोनों प्रहरी जन सामान्य का प्रतीकत्मक चित्र
है . इन्ही दो पात्रों से नाटककार वर्तमान जीवन में व्याप्त शून्यता,
निरुद्देश्यता तथा अस्तित्व संकट का बोध को भी व्यक्त करता है .
वस्तुतः इनका वर्तमान पात्रों के प्रवेश व्
प्रस्थान को सुगम बनाने और कथ्य के वेग को कुछ विश्राम देने की एक चातुरी से अधिक
और कोई नाट्य प्रयोजन नहीं पूरा करता .
कथात्मक दृष्टि से भी अँधायुग की कथा
प्रत्येक महासमर के उपरांत किसी भी युद्ध संस्कृति, अमानवीय विघटित विकृत मूल्यों,
विकलांग, कुण्ठित और जीर्ण-शीर्ण, क्षत-विक्षत, घायल तन-मन कथा की प्रतीकात्मक
अभिव्यक्ति भी है .
अँधायुग नाटक के कथा को अभिव्यक्ति देनेवाली
संवेदना के माध्यम से नाटककार भारती ने युद्धोत्त्पन्न मूल्यहीनता, विकृति, कुण्ठा,
और वैयक्तिक एवं सामुहिक विघटन के लिए आज के मानव को सावधान किया है .
कृष्ण की मृत्यु भी एक प्रश्न है. यह
प्रश्न यही है कि आज भी विश्व में, समाज में संशय और स्वार्थ का राज्य है . मूल्य
विघटन की स्थिति बन चुकी है और भविष्य अंधकारमय है . नाटककार का यह कथन जीवन
मूल्यों की आस्था की पैरवी करता है “यह कथा ज्योति की है, अन्धों के माध्यम से ”
<><><><><><><><><><><><><><><><><><><><><>
प्रस्तुत कर्ता –
अभिषेक कुमार