बुधवार, 16 अगस्त 2017



प्रभात फेरी

भारत माता की - जय ! वन्दे मातरम् ! महात्मा गाँधी - अमर रहे ! सुभाष चन्द्र बोस - अमर रहे ! भगत सिंह - अमर रहे ! भारत माता की - जय ! भारत माता की - जय !.....
उस वक्त मैं प्रथम कक्षा का छात्र होऊंगा. ये वाकया मुझे आज भी खूब अच्छी तरह से याद है. जिसे आज मैं आपसे शेयर कर रहा हूँ.
बच्चों के बुलन्द आवाज सुनते ही मैं जगा. शायद प्रभात फेरी जा रही है. मैं झट से अपने बिस्तर से उठ कर घर के मुख्य दरवाजे की तरफ भागा. मैंने देखा मेरे साथी जोर-जोर से नारा लगा रहे थे. आज क्या है.......15 अगस्त. आज क्या है...स्वतंत्रता दिवस.”  हाथों में तिरंगा झंडा लिए सारे बच्चे आगे बढ़ते चले जा रहे थे. काश मैं और पहले जग गया होता तो मैं भी इस प्रभात फेरी में शरीक हो गया होता. पर क्या करूँ. मन तो कर रहा था दौड़ कर उस पंक्तियों में जा मिलूं. पर नहीं, मैं तैयार भी तो नहीं. मैं इन कपड़ों में कैसे जा सकता हूँ. कई बच्चे मुझे देख कर तो हँस भी रहे थे कि मैं अभी-अभी सोकर उठा हूँ.  
भीड़ जा चुकी थी. मैं निराश होकर वहीँ दरवाजे पर बैठा उन आवाजों को सुनकर ये कल्पना करने लगा कि मोड़ तक सब पहुँच चुके होंगे. अब तो वे सब पाठशाला भी पहुँच चुके होगें. मैंने मन ही मन माँ से कहा –“तुमने मुझे क्यों नहीं उठाया, तुम जानती हो आज प्रभात फेरी थी.”
तभी पीछे से माँ की आवाज आई..... “शेखर.....”, “शेखर.....”
“उठो बेटा...., स्कूल नहीं जाओगे.”
मैंने कहा “अब क्या करूँगा स्कूल जा कर....”
तभी अचानक मुझे होश आया...
“क्या कहा ? स्कूल जा कर क्या करेगा ? मालूम नहीं तुझे आज क्या है...”माँ ने कड़क स्वर में कहा.
मैं समझ चुका था कि क्या माजरा है. मैं नींद में था. मैं तो अब तक सपना देख रहा था और अचेतन अवस्था में बोल रहा था. ये विचार मन में आते ही मैं आँगन की तरफ भागा.
क्यों कि बीते शाम को मैंने तिरंगा झंडा बना कर सूखने के लिए रखा था.पर यह क्या झंडा गायब. झंडा ना पाकर मन में दुःख हुआ. मैंने परेशान होगा पूछा- “माँ! झंडा कहाँ है?”
माँ ने कहा- “मुझे क्या पता, जल्दी नहा लो. देर हो रही है.”
मैंने फिर सवाल दुहराया.
तो  माँ ने पूछा - “कहा रखा था तुमने?”
“यही तो आँगन में” मैंने हाथ से इशारा करते हुए कहा.
“तो यही कहीं होगा या फिर रात को ओश से गल गया होगा. कागज का था ना.”
“तो लकड़ी तो होनी चाहिए ना.” मैंने कहा.  रुआंसे स्वर में कहते ही मेरे आँखों में आँसू आ गए.
माँ ने कहा –“तो रो क्यों रहा है फिर बना लेना. इसमें रोने की क्या जरुरत”
अब समय कहाँ है. मन ही मन कहते हुए बाथरूम की तरफ बढ़ा.
मन बड़ा परेशान था. कई तरह आशंकाएँ उठ रही थीं. आखिर हुआ तो क्या हुआ. कोई ले तो नहीं गया. नहीं रात को सोने के पहले तक तो मैं देख कर गया था. सही सलामत था. आज की भांति उस समय, तिरंगे प्लास्टिक के मैंने देखे भी न थे. बस कपडा वाला ही होता है यही जनता था. और होता भी होगा तो गांव में कहा. मैंने कितने जतन से बनाया था वो तिरंगा झंडा. पहले तो कागज को एक दुसरे से चिपका कर बड़ा किया. फिर गेंदा फूल को इक्कठा कर केशरिया रंगा. फिर उसकी पत्ती से हरा रंग रंगा. डेर सुई की मदद से चक्र बनाया. एक मोटी सी छड़ी खोज कर उस से चिपकाया. इतनी मेहनत के बाद क्या मिला. झंडा गायब.  
मैं नहा कर तैयार हुआ. माँ शायद रसोईघर में चाय बना रही थी.
तभी पास का ही एक साथी ऋषि मेरे घर आया. बोला –“जल्दी चलो देर हो जाएगी.”
“मुझे नहीं जाना” मैंने कहा
उसने पूछा “क्यों ”
मैंने कहा “बस कुछ नहीं कल जो मैंने झंडा बनाया वो मिल नहीं रहा.”
वो बोला- “ तो क्या हुआ, बहुत सारे लड़के के पास झंडा नहीं होगा.”
 वो मुझे हाथ पकड़ कर खीचने लगा.
पर मेरे मानो मेरे पैर जमीं से चिपक गए हों.
मेरे कदम उठ ही नहीं रहे थे. झंडे ना मिलने की वजह से मैं विद्यालय जाना नहीं चाह रहा था.
उसने कहा “क्या हुआ अब तेरे को, अरे वहां जायेगा तो कम से कम दो जिलेबियां तो मिलेगी?
मैंने कहा- “तुझे खाने की पड़ी है.”
इतने में माँ आवाज देती है.
“लकड़ी वहां रखी है. लेते आओ.”
मैं जैसे ही कमरे के पीछे  लकड़ी लेने गया एक कोने में तिरंगा झंडा पड़ा मिला. मैंने झट से चिल्लाया - माँ देखो .झंडा यहाँ है.
“क्या कहा” माँ ने कहा.
“झंडा मिल गया.” मैंने कहा
“इधर आ लकड़ी ले के पहले” माँ ने कहा.
मैं रसोई घर में लकड़ी रखा. और तिरंगा झंडा लिए दौड़ पड़ा.
मेरे अन्दर ऐसी विद्युत सी उर्जा का संचार हुआ. पैर को जैसे पंख लग गए हों. मन उत्साह से भर उठा. उस वक्त जो मनःस्थिति स्थिति थी मेरी वो अब कहाँ. कितना पावन. कितना निच्छल. देश प्रेम से ओतप्रोत. आज जब मैं खुद को तुलना करता हूँ तो अभी की देश भक्ति की जो भावना है उसमें न जाने कितने तरह के बिष घुल गए है.
 जाति- धर्म, भाषा- प्रांतीयता और ना जाने कितने दोष. हमारी सोच आज कितनी स्वार्थपूर्ण हो गई है. दिन- रात हम सर और सिर्फ अपने बारे में, अपनी सुख सुबिधा जुटाने में लगे हुए है. और जो भी अपना रोजगार या नौकरी कर रहे है जिससे देश को विकास के पथ पर आगे ना बढ़ा कर उसके राहों में रोड़े पैदा करते हैं. आये दिन तथाकथित बड़े बड़े घोटाले सामने आ रहे हैं. सृजन घोटाला प्रत्यक्ष प्रमाण है. हमें जितना ज्यादा खतरा सीमा क्षेत्र में उससे कहीं ज्यादा अन्दर के दुश्मनों से है.
कुछ ऐसे ही भाव हमारे गणमान्य अतिथि और शिक्षक गन से सुनने को मिले पर उस वक्त तो ये ध्यान और ज्ञान कहाँ होता है कि देश के अन्दर-बहार क्या होता है. अगर होता भी है तो उससे ज्यादा इंटरेस्ट तो उन मीठे जिलेबियों में होता है. कतार में लगे धूप में पक रहे छोटे बच्चे को यही लगता है कि कब बकवास समाप्त हो और जिलेबी हाथ में आये. आखिर पूरा गांव की परिक्रमा कर चूके थे सब. और गले भी तो सुख रहे थे.
दो ढाई घंटे बाद कार्यक्रम समाप्त हुआ. जिलेबियाँ बंटनी शुरू हुआ. मेरी बारी अभी आनी बांकी थी. मैं प्रतिदिन पाठशाला आने वाला छात्र था. आज वो बच्चे कतार में खड़े थे जिन्हें मैंने पहले कभी नहीं देखा थे.कुछ के नाक बह रहे थे, तो कोई पता नहीं कितने दिन से नहाया ना हो. कुछ के पेंट जमीं में लोटते जा रहे थे तो किसी का पेंट छाती को छू रहा है. कोई अपने छोटे भाई को ले खड़ा है तो कोई बड़ी बहन अपने छोटे भाई को गोद में. छोटी छोटी हथेलियाँ जिनमें एक जिलेबी मिल जाए तो ऐसा लगता जैसे उन्हें मेहनत का फल मिल गया. और जिन लड़कों ने हालाँकि ये पहली दूसरी कक्षा में पढ़ते हों पर गाली देने में पीएचडी कर रखी हो. आखिर वो लड़ भीड़ कर अपने हाथ में जिलेबी पा ही लिए. जो स्मार्ट टाइप के बन्दे होते वो पहले ही कह देते हे हों “हमरा सौसा जिलेबी दिहो ने तअ हम्म नाय लेभों” जो अच्छे घराने के होते. सर उसे दो पिस देने की सिफारिश कर देते. कहते “मम्मी को दे देना. मेरी तरफ से.” किसी अन्य को भी रोकते हुए कान में कुछ कहते . नहीं मालूम क्या उन्होंने कहा. पर कुछ ऐसा जरुर कहा जिससे वो लड़की सरमा रही थी. अंत में उस लड़की के वह से हटते-हटते कह देते – “माय क कहिय, आय हम्मअ पहुची रहलो छियों.”
रात हुई. मैं दिन भर किये हुए काम और बातचीत को पुनरवलोकन कर रहा था. इतने में माँ आई.
पूछी “खाना नहीं खायेगा का जो छत पर पसरा हुआ है.”
मैंने कहा- “क्या बनाई हो?”
वो कहीं –“क्या बताउगी, तभी खायेगा”
मैं कड़क स्वर सुन कर पलक झपकते ही उठ खड़ा हुआ और माँ के पास जा बैठा. अभी - अभी मेरे आँखों में तारे झिलमिला रहे थे और अब रोज रोज एक ही तरह की सब्जी देखकर आखें गड़ने लगी.
बचपन में मुझे सब्जियों से सख्त नफरत थी. खास कर पटल और कद्दू से. खैर मैं ने खाना शुरू किया. और अच्छा माँ बताओ “तुमने ही झंडा रखा था ना, मुझे बताया क्यों नहीं. मैं बेवजह परेशान हो रहा था.”
माँ- “तुझे तो अपनी पड़ी है, ये देखता है कि एक सुबह से मैं कितना खटती हूँ.”
मैं चुप माँ की तरफ कृत्यज्ञता से निहारता रहा. वो फिर कहीं “अपना और अपने सामान का ख्याल रखना कब सीखोगे.”
मैं उस वक्त नहीं समझता था उस फिक्र को. माँ के उस डाट फटकार को. पर वही तो असली प्यार था. जिसका आज मैं मोहताज हूँ.
मैं पुनः अपना बिस्तर ठीक कर लेट गया. खुले आसमान को निहारना सचमुच आजदी का एहसास दिलाता है. साथ ही साथ हम अपनी नगण्यता और अज्ञानता का भी बोध होता है. मैं इस स्वप्न में खो गया कि एक दिन मैं भी अपने पिता की तरह दुश्मनों से लड़ते हुए सीमा पर शहीद हो जाऊँगा. और इन सितारों की भांति मैं भी आसमान में चमकूँगा. आज मैंने प्रभात फेरी में हिस्सा लिया और इश्वर करे एक दिन मैं भी राष्ट्रीय परेड का हिस्सा बनूँ. जिनके 
क़दमों से धरती हिल जाए...

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C-7a: Pedagogy of social science [ B.Ed First Year ]

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