सोमवार, 26 दिसंबर 2016

दृष्टिकोण

स्कूल में सम कोण, विषम कोण, त्रिकोण, षटकोण, संगत कोण और ना जाने कितने तरह के कोण पढाये- बताये जाते हैं. किन्तु एक कोण ऐसा है जिसे ना किसी स्कूल या ना कॉलेज में बताया जाता है. वो है दृष्टिकोण. जिसे नज़रिये के नाम से भी नवाजा गया है. जो जीवन के अनुभवों से संग्रहित,पुस्तकों से सिंचित एवं बुजर्गों के सुझाव से पल्लवित, पुष्पित होकर निखरता- महकता है. 

दृष्टिकोण यानी नज़रिया. इसका दायरा बहुत बड़ा है. ये समझने के लिए, जितनी मुश्किल है उतना ही जरुरी भी. इस विषय पर ज्यादा से ज्यादा अनुसन्धान किये जाने की जरुरत है. नजरिया यानि दृष्टी कोण. जितनी नज़र उतने नजरिये. जितने ज्यादा शब्द उतनी ही मात्रा में दृष्टिकोण. जिस प्रकार एक पत्थर में जितने कण हो सकते हैं ठीक वैसे ही उतने ही विचार, उतने ही दृष्टीकोण जो किसी भी वस्तु या विषय पर परिलक्षित होते हैं. शायद एक अलग नज़रिए से दुनिया को, जीवन के अनेक पहलुओं का अवलोकन कर उसकी व्याख्या करना दार्शनिकता कहलाती है.

हम अपने दैनिक जीवन में कई तरह बातें सोचते हैं और उसे पूरा करने की कोशीश करते हैं. हमारे हाथ कभी सफलता, तो कभी असफलता लगती है. इन सफलताओं और असफलताओं या किसी भी खेल का जीत या हार पर हमारा दृष्टीकोण एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. हमारी मानसिकता ही हमारे जीवन के विभिन्न परिणामों के लिए जिम्मेवार होती है. हमारी जो वर्तमान सोच है या जिस तरह से सोचने का तरीका है, ये सारी चीजें एक दिन में नहीं बदली जा सकती है. हमारे दृष्टीकोण को मूर्तरूप लेने में काफी समय लग जाता है या यूँ कहें कि समय के साथ-साथ हमारी सोच भी बदलती जाती है. हमारी सोच, हमारे दृष्टी कोण का ही परिणाम है.

हम किस क्षेत्र, किस धर्म, किस भाषा से ताल्लुक रखते है?, हमें बचपन से आज तक किस तरह के वातावरण में पढने लिखने का मौका मिला?, हम किसी सदी में पैदा हुए ? उसी सदी में कौन- कौन से विश्व्यापी घटनाएँ हुई? उस समय में तमाम क्षेत्र के नेता के स्वयं के दृष्टी कोण और फैसलों से सामाजिक दृष्टि कोण प्रभावित होती है. सामजिक दृष्टिकोण को बदलने या प्रभवित करने में मिडिया की भी महत्व पूर्ण जिम्मेवारी होती हैं.

कुछ चीजें हमें बहुत पसंद होती हैं और कुछ चीजें बिलकुल ही नापसंद. ये पसंद और ना पसंद हमारी मनोवृति की सूचक होती है. जैसे हमारी मनोवृति होती है वैसा ही हमारा स्वाभाव और वर्ताव होता है. चूँकि हर मन की अपनी मति और गति होती है. ऐसा माना जाता रहा है मानव मन बड़ा चंचल होता है. इसे स्थिर करना बहुत ही मुश्किल काम है. जैसे कि आंधी में दीपक को बुझने से रोकना. खैर ये तो साधू संन्यासी का काम है कि अपने मन को वस में रखना. एक आम इन्सान इस विलासी दुनिया से कैसे बच सकता है.आपने भी धर्मात्माओं को कहते सुना होगा मन को संतुलित और संयमित करने के अनोकों फायदे हैं और अगर आप अपने अंतर मन से दोस्ती कर लेते हैं तो आपके अन्दर की ज्योति जलते देर ना लगेगी. दुःख, सुख, ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान क्रोध आदि तामाम तरह की भावनायें हमारे में समय और परिस्थति के अनुसार घूमते रहते हैं. हम उन्हें आजीवन झेलते, सहते और महसूस करते रहते हैं. हम कभी अपने मन के प्रत्यक्षदर्शी होते हैं तो कभी मन और हमारा भेद मिट सा जाता है और जब मिटता है तो उस प्रक्रिया को उस वक्त महसूस नहीं कर पाते. जब वक्त बदल जाता है तब हमें ध्यान आता है कि हम किस स्थिति में और हम क्या सोच रहे हैं. इस सोच के फायदे नुकसान क्या है? इन तमाम घटनाओं को देखते हुए हम पातें हैं कि हमारा मन अगर दर्पण है तो हमारा दृष्टीकोण हमारा नजरिया हमारी सोच उसका प्रतिबिम्ब. हालाँकि हम 100% नहीं कह सकते कि हमारी सोच पर सिर्फ हमारे मन का ही प्रभाव है हमारे नजरिया पर एक दृष्टी से देखा जाये तो दिमाग की भूमिका अधिक है हमारा दिमाग ही हमें सोचने को मजबूर करता है सोच को व्यवस्थित करता है विचार को उत्पादित पोषित संचारित करता है. ये चाहता है पर वह ठीक तरीके से काम नहीं कर पाता. इसका मूल कारण है कि हम जो परिणाम चाहते है, उसके लिए हम अपने दिमाग को ट्रेंड (प्रशिक्षित) नहीं कर पायें हैं. और जहाँ तक हम अभी सोचते हैं उतने तक ही हम अपने दिमाग को डेवलप कर पायें हैं. अपने दिमाग को प्रशिक्षित करना बड़ा कठिन काम है.किन्तु ऐसा नहीं है दिमाग तभी प्रशिक्षित होगा जब हम करना चाहेंगे. यह वातावरण और घर परिवार यहाँ तक कि गर्भ से ही प्रशिक्षित होता चला जाता है. यही कारण है कि कुछ बच्चे भूत का नाम सुनकर डरते हैं तो वही कुछ बच्चे हँसते हैं. ऐसे फर्क का एक मात्र कारण है बचपन में उसे माता- पिता द्वारा दी गई सुचना या उनके द्वारा किया कहा गया बर्ताव है. मान लिया जाय कि हमने शाहरुख़ खान की फिल्म ‘ॐ शांति ॐ’, ‘मैं हूँ ना’ या कोई भी देखी. उस फिल्म को देखने के बाद फिल्म के पोस्टर के प्रति जो नजरिया बना था, उस फिल्म को देखने के पहले वैसा नहीं था. यानि सूचनाओं से हमारी सोच बदलती है सूचनाओं से हमारी धारणा परिपक्व होती है यह अलग बात है कि वो सूचना सच्ची हो अथवा झूठी. पर इतना तो निच्शित है कि झूठ हो या सच तमाम तरह की बातों से हम कहीं ना कहीं प्रभावित, प्रेरित, कुंठित या क्षुब्ध आदि होत्र हैं. ऐसे नजरिये की स्थिति में समय का योगदान भी कम आँका नहीं जा सकता है. अगर समय पर सूचना नहीं मिली तो हमारी सोच अलग होगी अगर समय से पहले ज्ञान व जानकारी हमें प्राप्त हो जाती है तो समस्याओं से मुकाबला करने में हमें ज्यादा परेशानी नहीं होती है. 

तो सवाल उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए ? इस तरह उठता है कि किस तरह का नजरिया हमें अपनाना चाहिए? इस तरह के नज़रिये का स्वागत किया जाना चाहिए पर जहाँ सफलता की बात हो तो सकारात्मक नजरिया अपनाना चाहिए. कभी कभी हम देखते हैं कि कुछ तरह के दृष्टी कोण हमने लाभ कम हानि ज्यादा पहुंचाते हैं. ये लाभ हानि का सही आकलन हमें तब मिलता जब हम निश्पक्ष होकर देखते हैं और लाभ हानि को हम उसी रूप में सहते हैं जिस रूप में अंत में अपना नजरिया बनता है उस वस्तु या विचार के प्रति. यदि तमाम रूकावट झंझावातों से हमारे नजरिये बनते बदलते रहते हैं. अंत में यह प्रक्रिया कुछ धीमी हो जाती है कभी यह प्रक्रिया रुक जाती है और जब रुक जाती या जब परिपक्व हूँ जाती है वह एक व्यक्तिव और विचारधारा के नाम से जानी जाती है तो वह एक व्यक्तित्व और विचार धारा के नाम से जानी जाने लगती है. ये नजरिया ही है जो हममें उत्सुकता, कौतूहलता, उत्साह आदि ना जाने कितने तरह की भावनायें हम में भरता है. इस नजरिया से ही हम अपनी बातों को भावनाओं को प्रकट करते हैं. हमारी जैसी सोच होती है वैसा ही हमारा लक्ष्य होता है उन लक्ष्य को बना कर ये नजरिया ही कभी हमें प्रेरित तो कभी पराजित करता है कभी खोखले होने का भंडाफोड़ करता है तो कभी गुणों की प्रशंसा करता है. हम अपने ही नज़रिए से दुःख से कभी ज्यादा दुखी कभी कम दुखी होते दुःख का कारण तो वैसे का वैसा ही पर समय के साथ हमारा नजरिया बदलता जाता है फिर हम उसे विचार को उस भावना को दूसरे ढंग से देखने लगते हैं मान लिया जाय. किसी अपने प्रियजन की मृत्यु या जन्म होता है तब उस वक्त शोकाकुल या प्रफुल्लित हो जाते पर जैसे ही समय बदलता वैसे ही हमारी सोच भी बदल जाती है. हम एक नज़रिये से नकार देते हैं कि उनकी उमर हो चली थी जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सकता है कि उनकी उम्र हो चली थी, जिसे भगवान ने बुला लिया उसे कौन रोक सका है? आदि तरह की विचार को अपने नज़रिये पर थोप कर उस दुख से कभी निजात पाने की कोशिश करते हैं,भूलने की चेष्टा करते हैं. बातें जो भी हों पर जिन्दादिली से अपने नज़रिये को दुरुस्त रखने के लिए नजरिया को नापने तौलने की जरुरत तो रहेगी ही.

- अभिषेक कुमार 
-abhinandan246@gmail.com


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रं भिया
(पत्रिका के नाम एक पुरानी चिट्टी)
दिनांक- २७.०९.२०१४ शनिवार
पिछले काफी समय से मैं सोचता रहा हूँ कि कोई ऐसी पत्रिका हो जो हमें नाट्य संसार साथ-साथ साहित्यिक दुनिया में ले चले.जो हमें अपने संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और परम्परा से जोड़े रहे. ऐसी पत्रिका जो हमारी कला प्रतिभा को जागृत करे. हमें ऐसा माहौल दे ताकि हम समाज के बारें में सोचे, उसे संगठित करने विकास पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा ले सकें. रंग अभियान ३४वाँ अंक, स्नेह पात्र संजय कुमार द्वारा १५.०९.२०१४ को मुझे प्राप्त हुआ. स्वाभाविकतः मैं पत्रिका पाकर प्रसन्न हुआ पर मेरी यह प्रसन्नता सामाजिक रूप से कम व्यक्तिगत रूप से ज्यादा थी.
इस पत्रिका के पूर्व आप (संपादक अनिल पतंग जी) की रचना ‘प्रोफ़ेसर सपना बाबू’ की तेइसों कहानियों सहित सभी पत्रों को मैंने पढ़ा. आपके साहित्य और संवादशैली ने मुझे काफी प्रभवित किया. आपके नाम और कम दोनों बेजोड़ हैं. मैं काफी आश्चर्य चकित होता हूँ कि आप जितने सक्रिय रंग मंच में उतने ही प्रिंट मिडिया और वेब मिडिया में भी, अब तो सिनेमा की दुनिया में भी हैं.
यूँ तो मेरी नाट्य और साहित्यिक कुशलता नगण्य है परन्तु कला के विविध रंगों के प्रति मेरी गहरी आस्था और अभिरुचि है. मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूँ कि संजय जी के आमंत्रण पर प्रोफ़ेसर सपना बाबू पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में शामिल हो सका. सभी में बेहतरीन बातें सुनने को मिली पर इन सबसे बढ़कर मुझे हिंदी साहित्यिक की जमीनी हकीकत और हालत क्या है इसकी सीख मिली. हिंदी की दयनीय स्थिति से अवगत होकर काफी दुःख हुआ.
 जब मैंने रंग अभियान ३४ के ‘रंग मंच और सिनेमा’ आलेख पढ़ा तो ऐसा लगा मानो नौटंकी के सारे भेद खुल गए. सच पूछिए तो आपके सम्पादकीय आलेख की जितनी प्रशंसा की जाये कम है. अब जरा इस वाक्य पर नज़र डालें जिसमें आपने लिखा है “दो चार नाटकों में अभिनय मात्र करने के बाद वे बहुत बड़े निर्देशक सॉरी डायरेक्टर (अंग्रेजी शब्द जरा वजन बढ़ा देता है) समझते है.” भला इन वाक्यों को पढ़ कर इन बातों को भली भातीं अनुभव करते हैं. ऐसे अनेकों उदारहण प्रस्तुत किये जा सकते हैं.
पत्रिका के विभिन्न स्तंभों जैसे साक्षात्कार, स्मृतिशेष, नाट्य लेख एवं हलचल आदि सभी संतोष प्रद हैं. लोक एवं नाट्य कला की स्थिति विषम है. साथ यह भी डर है कि सामाजिक, सांस्कृतिक परम्पराएँ कहीं विलुप्त ना हो जाये क्योंकि वैश्वीकरण और आधुनिकता की आंधी से थमने वाली नहीं है. लोग देशी चीजों को उतना महत्व नहीं देते. उन्हें दूर का ढोल सुहाना सुहाना और घर की मुर्गी दल बराबर लगती है. देशी कलाकार हो या दर्शक सभी फ़िल्मी और टीवी सिरयलों की तरफ रुख करते हैं. इसके दो कारण हो सकते है- पहला नौटंकी आम लोगों तक पहुँच नहीं पा रही और दूसरा नौटंकी क्या है, इसे किस रूप में लें. ज्यादातर लोग इसे समझ नहीं पा रहे हैं.

ऐसे में अतुल जी जैसे कलाकार ही सजग प्रहरी की भांति लोक कला के ध्वज को सँभाले हुए हैं. ऐसे ही महानुभावों के सत्यप्रयासों से नाट्य एवं कला क्षेत्र का कायाकल्प हो रहा है. लोग उनके कार्यों को समझने लगे हैं. परिस्थिति बदल रही है. लोक कलाकारों को सम्मान मिल रहा है.

अतुल यदुवंशी जो इलाहबाद के भारतीय कला महा संघ के अध्यक्ष हैं. इनके साक्षात्कार आलेख ने मुझे प्रभावित किया. “समाज,सुधारक बड़े-बड़े ऋषि मुनियों द्वारा व्यवहार परिवर्तन मूल्यों और आदर्शों के प्रति स्थापन के लिए लोक नाट्यों का प्रयोग किया जाता था.ना कि नाच का जिसे आज तथाकथित रसिक लोग इसमें ढूंडते हैं” देश और समाज को सही दिशा देने एवं उन मूल्यों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचने का एक हथियार के रूप में लोक कलाओं का प्रयोग किया जाता रहा है. इनके द्वारा कहीं ये बातें बेहद महत्वपूर्ण हैं.

मेरी दृष्टि में रंग अभियान के फायदे और उद्देश्य-
लोगों में सामाजिक के गलत – सही चीजों के प्रति जागरूकता पैदा होती है. वे समाज और साहित्य से जुड़ते हैं. लोगों में एकता और शिष्टता का विकास होता है.लोग अपने कर्मों और विचार के प्रति सजग होते हैं. रंग कर्मियों, रंग प्रेमियों को एक मंच प्रदान करती है ताकि वे अपने विचारों को रख सकें, प्रस्तुत कर सकें. साहित्यकारों, नाट्यकारों, निर्देशकों आदि को प्रेरित करती है उसके कार्यों को चिन्हित करती है उनकी कुशलताओं को निखारती है उसकी रचनाओं को सहेजती है ताकि वर्तमान के साथ साथ भूत और भविष्य दोनों सुधरे. नाट्य विधा का प्रचार- प्रसार होता है. इसी माध्यम से समाज को समयानुसार सन्देश देता है और इसी माध्यम से समाज को समयनुसार सन्देश देता है उसे वर्तमान समस्याओं से रूबरू कराता हैं. उसका हल ढूंढने का उपाय बताता है.कहाँ क्या कार्यक्रम हो रहा है? कौन कौन से कलाकार और निर्देशक शामिल हैं? नौटंकी या नाट्य मंचन किस विषय से जुड़ा हुआ था? इस तरह की तमाम ख़बरों से पाठक अवगत होते हैं. पत्रिका को पढ़कर अनेकों विचार मिलते है जिन्हें भविष्य के कार्यसूची में शामिल करना आवश्यक होता है. भविष्य के विकास कार्यक्रम को और अधिक सुचारू तरीके से कर पायें. इसके लिए मानव संसाधनों की पूर्ति करने में सहायता मिलती है. नाट्य क्षेत्र का तो विकास होता ही है साथ साथ पारंपरिक कलाओं का संरक्षण संवर्धन भी होता है.
तीन तरह के लोग होते हैं. पहला जो सिर्फ सोचते हैं कि ऐसा करना चाहिए पर वे करते भी है पर कुछ कमियों की वजह से सम्पूर्ण नहीं कर पातें यानि संघर्ष करते हैं तीसरा जो सोचते है और सफलता उनके क़दमों में होती है. इन तीनों तरह के लोगों को रंग अभियान प्रेरित,प्रोत्साहित और प्रतिष्ठित करती है. जिस प्रकार प्यासे को पानी चाहिए, उसी प्रकार जिज्ञासु पाठक को पत्र पत्रिका चाहिए. पाठकों को जितनी मात्रा में पाठ्य सामग्री चाहिए, रंग अभियान इसके लिए पर्याप्त है.
साक्षात्कार स्तंभ में आपकी प्रश्न शैली संतुलित और सहज है. अभिनेत्री उमा झुनझुनवाला के विचार और व्यक्तित्व बेहतरीन हैं. धरोहर के अंतर्गत नाटकार आबुर्जोफ़ और मोहन राकेश के विचार विमर्श को रंग मंच और नाटक पर सफल ऑपरेशन कहा जा सकता है क्योंकि रंगमंच से जुड़े लगभग जितने भी अंग है उनका बारीकी से जाँच- पड़ताल कर उन्हें प्रस्तुत किया जा सकता है.
समकालीन रंग परवेश और नाट्य सौन्दर्य नमक आलेख जो डॉ. लव कुमार लवलीन द्वारा लिखा गया है. इसमें भीष्म सहनी के नाट्य रचनाओं की काफी विस्तृत चर्चा की गई साथ ही साथ उनके व्यक्तित्व, रचना प्रक्रिया सृजनात्मक दृष्टि संवेदनशीलता को काफी गंभीरता से परखा गया है और अध्ययन किया गे है. तेईस पेराग्राफों से सुसज्जित यह आलेख किसी भोज पर मिलने वाले गरिष्ठ भोजन से कम नहीं है. आलेख से पता चलता है कि लेखक के पास शब्द भंडार की कोई कमी नहीं है.
यहाँ संक्षिप्त रूप से इस आलेख के बारे में यही कहा जा सकता है कि नाटक की आत्मा, प्रकृति और सौन्दर्य को समझने समझाने का प्रयास सराहनीय और संतुष्टि दायक है.
अनिल पतंग बाबू अपने विचारों को जिस सरलता से रखते हैं, वह अन्यत्र कम ही देकने को मिलता है. उक्त बातें उनके नाट्यालेख “नाटक का भविष्य और भविष्य का नाटक पढ़ कर समझा जा सकता है ” आलेख का अध्ययन मैंने महसूस किया जिस महान उद्देश्य के लिए नाट्य रूपी इन्द्रधनुष की रचना की गई उसे कुछ स्वार्थी तत्व नष्ट करने पर तुले हुए हैं. पहली बात तो ये कि सामान्य जन से नाटक अभी भी कोशों दूर है. गाँव की स्थिति भी इस मामले में छिपी नहीं है. लोग मनोरंजन का मतलब सिर्फ मोबाइल और टी.वी को ही मानते हैं. उन्हें वे नाट्य कला या फिर सांस्कृतिक पारंपरिक नाच गण समय की बर्बादी है. इतना ही नहीं नाटक, नाच, गण आदि को आम जन सिर्फ देख सकते हैं उसमें शामिल होने या उसे अपने जीवन में शामिल करने की जरुरत नहीं समझते. आज की परिस्थिति ही कुछ ऐसी है. हमारे गाँव में जब कभी नाटक का आयोजन तो मुझे अभिभावक से वहां जाने की अनुमति नहीं दी जाती थी. उसमें शरीक होना तो दूर की बात. कक्षा दसवीं के दौरान समझ आया इसमें अभिभावक का दोष नहीं. दोष तो उन धन और पद लोलुप लोगों का है जो शुद्ध मनोरंजन की जगह अश्लीलता परोसते हैं और उसे मसाला कह कर प्रचार करते हैं. अंग प्रदर्शन की आँधियों में बॉलीवुड और हॉलीवुड में तो प्रतियोगिता छिड़ी है. भोजपुरी भी अपने लिक से हटकर, मसालेदार, संवाद, भड़कीले वस्त्र प्रदर्शन आदि फुधार्ता की हड को बखूबी पर कर रहा है. भला इस रंगीन समां में स्थानीय जिसे लोक कला कहा जाता है वो पीछे क्यों रहे?
इस विषम बेला में निराश होने के कुछ नहीं होगा. लोगों की मानसिकता में तभी बदलाव आएगा जब रंग अभियान से हम लोगों को जोड़ पायेंगे.  
बड़ी ख़ुशी होती है जब कहीं सार्थक नाटक पढने सुनने को मिलता है. आशा की किरण दिखती है, जब नाटक के चित्र किसी पत्र पत्रिका में छपे होते हैं. लगता है कि कही न कहीं प्रयास जारी है जिसे और अधिक सुचारू ढंग से प्रत्येक गाँव शहर में फ़ैलाने की जरुरत है. जब लोग अपने गाँव घर की किस्से- कहानियों को सुनने जिसे नाट्य के जरिये देखेगें, जहाँ आज भी साक्षरता दर काफी कम है वहां वे अपने कर्तव्यों अधिकारों के प्रति सचेत होंगे. वे अपनी समस्या का समाधान स्वयं धुन्धने का प्रयाश करेंगे. इन सबके अतिरिक्त नाटक का जो मूल उद्देश्य है मनोरंजन करना वहां सफलता के झंडे गड सकती है. ये इसलिए भी संभव हो सकता है क्यों कि हर गाँव में तो सिनेमा हॉल है नहीं. पर सामुदायिक भवन एवं परिसर जरुर होता है. बस छोटा सा क्षेत्र ही नाटक – नौटंकी के लिए पर्याप्त है. जहाँ तक छोटे – बड़े शहरों की बात है वहां के भी दर्शक रियल्टी शो ज्यादा देखना पसंद करते हैं. जरुरत है तो बस निरंतरता और सुव्यवस्था की. यह तभी हो सकता जब रंग अभियान से जुड़े तमाम लोग नारकर साहित्यकार नाट्यकर्मी मंच कर्मी निर्देशक अभिनेता एवं विभिन्न कलाकार व्यवस्थापक सभी अपने क्षमता नुसार प्रयास कर सकते हैं. नाट्य एवं कला संस्थाएं विभिन्न उप संस्थाएं स्थापित कर कार्यक्रम को आगे बढ़ा सकते हैं.
अंत में इस विषय पर मैं यही कहना चाहूँगा कि नाटक परंपरा और प्रगति दोनों को साथ लेकर चलें. नाटक के मंचन को अधिक से अधिक प्रभावी बनाने का प्रयास किया जाये. उसे विभिन्न प्रतीकों, प्रतिबिम्बों,प्रकाशों, ध्वनियों और सज सज्जा सहित तमाम तकनीकों का उम्दा इस्तेमाल और विभिन्न प्रयोग किये जाने की जरुरत है. सार्थक और नए प्रयोग तभी हो सकते हैं जब तक अपनी प्रतिभा को बढ़ाया जाये और जो प्रतिभा वान हैं वे फ़िल्मी पर्दे की तरफ मुड़े जरुर पर रंग मंच को कभी न भूलें.


- अभिषेक कुमार
abhinandan246@gmail.com
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C-7a: Pedagogy of social science [ B.Ed First Year ]

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